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Tuesday, December 28, 2010

कृष्ण शक्ति

हमारी वैदिक संस्कृति यज्ञ प्रधान  रही है  . जो अग्नि और  प्रकाश के रूप में ईश्वर की आराधना का प्रतीक है . गायत्री मंत्र जो महा मंत्र माना गया है उस में भी ईश्वर को प्रकाश स्वरुप माना गया है . ईश्वर की कल्पना दिव्य ज्योति  पुंज  के रूप में की गयी है.
 आम जन   मानस प्रकाश को ईश्वरीय मानता है  और अंधकार को तामसी शक्तियों का प्रतीक.पर  ये दोषपूर्ण  अवधारणा है . 
 शक्ति (ऊर्जा ) तो  शक्ति  ही है फिर वो दोषपूर्ण कैसे हो सकती है ? उस का प्रयोग हम कैसे करते है ये हम पर निर्भर करता है .
कृष्ण शक्ति को समझने के लिए हमें कुछ तथ्य समझने होंगे .
                                                        वैज्ञानिक द्रष्टि 
एक परमाणु पर कोई आवेश नही होता है जैसे ही एक इलेक्ट्रान उस से निकलता है जितना आवेश इलेक्ट्रान पर होता है उतना ही आयन पर .   जब इलेक्ट्रान पुनः अपनी कक्षा में आ जाता है तो वे मिल कर उदासीन हो जाते है .  आयन का द्रव्यमान इलेक्ट्रान की तुलना में बहुत  अधिक होता है . 
 यदि  एलेक्ट्रोन अपनी  कक्षा में वापस आ भी  जाये तो  परमाणु पर तो कोई आवेश नही होता पर उस के अन्दर स्थित इलेक्ट्रान पर तो आवेश होता ही है और वो अनन्त काल तक अपनी कक्षा में चक्कर लगता रहता है. जब तक की उस को  आवश्यक वाह्य  ऊर्जा न मिल जाये . परमाणु के अन्दर  धन आवेश भी है और ऋण आवेश भी पर परमाणु पर कोई आवेश नही है . उस के अन्दर गति भी है . प्रकाश की गति से इलेक्ट्रान अपनी कक्षा में चक्कर लगा रहा होता है . और घूर्णन गति भी करता है ठीक वैसे ही जैसे की अपनी पृथ्वी  अपनी अक्ष और कक्ष दोनों  पर घूमती है  .
पत्येक  परमाणु     पूरे ब्रह्माण्ड  का  प्रतिनिधित्व करता है  और मानव काया  तो असंख्य परमाणु  से  बनी हुई होती है . स्थिरप्रज्ञ( न सुख में सुखी होने वाला और न ही दुःख में दुखी होने वाला ) जिसे अहम् ब्रम्हास्मी  का बोध हो  वो पूरे बह्मंड का  प्रतिनिधित्व करता है . उस के अन्दर सब कुछ है  . यही कारण है की भगवान श्री कृष्ण  के मुख में  माता यशोदा को सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के दर्शन हो जाते है 
पर ये भी मोक्ष की अवस्था नही है क्यों की अस्तित्व तो है ही .
  आईये   विज्ञानं  के एक समीकरण को देखे 
\gamma + \gamma \leftrightharpoons \mathrm e^{+} + \mathrm e^{-},
where γ is a photon, e+ is a positron and e is an electron.

परमाणु ( ब्रह्माण्ड )   के अन्दर  इलेक्ट्रान (जीव ) अनन्त काल तक चक्कर लगता रहता है . जव तक उस का अस्तित्व है वो गतिशील है .उस को अपना अस्तित्व नष्ट करने के लिए  अपने से ठीक विपरीत positron  की आवश्यकता होती है और दोनों ही अपना अस्तित्व समाप्त कर देते है और प्रकाश  ऊर्जा के बण्डल  फोटान में बदल जाते है . ये बण्डल अखंड और अविनाशी  होते है .
अपना अस्तित्व समाप्त करना ही मोक्ष  है .
सिर्फ  प्रकाश मार्ग  पर चलने  से मुक्ति संभव नही है . ये  तो सिर्फ एक शिरा है मोक्ष के लिए तो दूसरा शिरा कृष्ण शक्ति  (डार्क मैटर एनर्जी  ) भी चाहिए .
क्रमशः 

Tuesday, December 21, 2010

पुनर्जन्म प्रक्रिया एव प्रेत अवस्था

पुनर्जन्म की प्रक्रिया सुनिश्चित होती है  जिस में विघ्न  पड़ने पर कुछ समय  प्रेत  अवस्था  भी हो सकती है .पुनर्जन्म की प्रक्रिया समझने के लिए हमें कुछ तथ्य समझने होंगे .
हमारे भाव ही फलीभूत  होते है .इसी लिए एक ही कर्म करने पर भी अलग अलग फल प्राप्त हो सकते है . किसी भा कर्म का फल उस कर्म करने के भाव में निहित होता है . 
 सत्य तो यह की  हमारे भाव का प्रभाव हमारे जीवन के हर क्षेत्र में पड़ता है . क्या आप ने कभी सोच है की हमारे यहाँ   किसी की मृत्यु  के समय  गीता का पाठ क्यों करते है ? क्यों चौथा आश्रम वानप्रस्थ आश्रम है ? 
इस का जवाब प्रकति के एक नियम में छुपा है जो पुनर्जन्म की प्रक्रिया को भी निर्धारित करता है . मरते समय हमारा जो अंतिम भाव होता हम उसी  भाव पर स्थिर हो जाते है .इस के दो कारण है . पहला की हमारी बुद्धि नष्ट हो जाती है जो विवेक के लिए उत्तरदाई   होती है और दूसरा यह की घटनाये समय के सापेक्ष होती है और  घटना  न होना समय  से परे होना ही है अर्थात मरने से जन्म लेने तक का समय  उस के लिए रुक जाता है . इस स्थिति में न तो वह कुछ प्राप्त कर सकता है और नही कुछ खो सकता है . .
मृत्यु  के उपरांत हमारा मन ही हमारे साथ जाता है जिस में हमारे जन्म जन्मान्तर के संस्कार संचित होते है . जन्म तभी संभव है जब की ये संस्कार उस माता पिता के संस्कार से मेल खाए जिस के यहाँ  वह जन्म लेना चाहता है. ये थी उसी प्रकार है जैसे कोई ताला अपनी ही चाभी से खुलता है  . यही कारण है की  साधारण लोग तो जन्म लेते रहते है पर बहुत पुण्य आत्मा और  बहुत दुष्ट आत्मा को जन्म लेने के लिए काफी लम्बा इन्तजार करना पड़ता है क्यों की वे चाह कर भी तब तक जन्म नही ले सकते जब तक की उन के संस्कारो वाले माता पिता उसे न मिल जाये .
ये प्रकति का नियम अवतारवाद  की धारणा को पुष्ट करता है जिसे हमारे ऋषि मुनि मानते थे और विरासत में मिलने पर हम भी मानते है पर बिना कारण जाने . 
विज्ञानं  में  गति विषयक नियम कहता है की 
यदि कोई पिंड गतिशील अवस्था  में  तो वह गतिशील रहेगा और विराम अवस्था में है तो विराम  में ही रहेगा जब तक की कोई वाह्य बल न आरोपित किया जाये .
यही बात म्रत्यु  के उपरांत  लागु होती है अंतिम भाव की ठोकर जिस दिशा की होती है    उसी दिशा जन्म मिलता है .
भरत मुनि की कहानी उस का प्रमाण मानी जा सकती है . भरत मुनि ब्रह्म ज्ञानी थे पर म्रत्यु से कुछ दिन पूर्व उन्हों ने एक अनाथ मृग का बच्चे को आश्रय दिया .और मरते समय उसी से मोह में आसक्त हो गए . फलस्वरूप मोक्ष से पूर्व उन्हें एक और जन्म लेना पड़ा जिस में उन्हें मृग योनी प्राप्त हुई  .
                                                    प्रेत अवस्था 
हमारा शरीर पांच  तत्वों  से निर्मित है .मृत्यु के समय सिर्फ पृथ्वी तत्व अलग  हो जाता है . इस तत्व के अलग हो जाने पर वह स्थूल  जगत में अपना अस्तित खो देता है.
पर जब कोई किसी अत्यंत प्रबल भाव के साथ मृत्यु को प्राप्त होता है कुछ मात्र  में वह सूक्ष्म देह में पृथ्वी तत्व भी आ जाता है और ये अवस्था ही प्रेत अवस्था होती है . ये मात्र इतनी सूक्ष्म होती है के अपना अस्तित्व प्रकट   नही कर सकते .  एक तत्व कम होने पर ये कुछ हद तक भविष्य और पूरा अतीत  देख सकते है . प्रेत विद्या जानने वाले और योग्य व्यक्ति संपर्क कर के जानकारियां  प्राप्त कर  लेते है .
अचानक घटी दुर्घटना में कभी  कभी पृथ्वी तत्व  की थोडा अधिक मात्र में आ जाता है जिए ये प्रयास  कर अपनी धुए  आभासी आकृति कभी कभी प्रकट कर सकते है .
प्रेत अवस्था  को हम उस के बीते काल की प्रतिध्वनी मान सकते है  जिस का समय वही पर रुक चुका  है .   
   
  
 

Sunday, December 12, 2010

पुनर्जन्म

बहुत से लोग पुनर्जन्म   की धारणा पर विश्वास  नही करते  क्यों के वे प्रमाण मांगते है और वैज्ञानिक सोच भी प्रमाण पर ही  आधारित  है  . ऐसे बहुत से उद्दहरण पुनर्जन्म के है जिस का  का विज्ञानं के पास कोई जवाब नही है .
हम बहुत की चीजे नही जानते बल्कि बहुत ही कम जानते है ज्ञान के विशाल सागर की तुलना में , पर जिसे हम नही जानते उस का अस्तित्व है और हमारे जानने या न जानने से सत्य पर फर्क नही पड़ता  सिर्फ हम पर ही फर्क पड़ता है .
हम कार्य कारण की की अनन्त श्रंखला में है  और जिस के कारण हम को कर्मो के फल का भोग करना ही पड़ता है .यह श्रंखला स्वचालित है और पुनर्जन्म इसी  कारण होता है . यदि ऐसा न हो तो हम कर्म कर उस के फल भोगने के लिए बाध्ह्य न होते .
पुनर्जन्म इस स्वचालित प्रकति का एक हिस्सा है  .
पुनर्जन्म की प्रक्रिया समझने से पहले हमें  जीव क्या है जानना होगा .
म्रत्यु के साथ हमारा अस्तित्व समाप्त नही होता है क्यों की  म्रत्यु सिर्फ शरीर का जीव से अलग होना  है . जब तक जीव है तब  तक उस का अस्तित्व है . 
                                 जीव क्या है ?
आत्मा और जीव में अंतर है . हमारे तीन शरीर माने गए है  स्थूल , कारण और सूक्ष्म ,  स्थूल शरीर के नष्ट होने को हम म्रत्यु  और सूक्ष्म शरीर के नष्ट होने को हम मोक्ष कहते है . मोक्ष मिलने का अर्थ है हमारे अस्तित्व  का  समाप्त हो जाना  और  शून्य में  विलीन  जाना . 
कभी  बहती हुए नदी में बनते हुए जल भवर को देखिये . उस का अस्तित्व है क्यों हम उस को देख रहे है पर उस में हर पल नई जल धार आ  जाती है . तो क्या उस का अस्तित्व ये जलराशि है कदापि नही क्यों की वह तो प्रति पल बदल रही है . उस का अस्तित्व है वह  गतिज ऊर्जा  जो पुरानी जल राशी नयी को दे देती है .
ठीक यही बात हम पर लागु  होती है . हमारा शरीर  उस जल रही की तरह है तो जीव रूपी ऊर्जा के निकल जाने पर बिखर जाता है .
इस ऊर्जा को हम मन  के  नाम से जानते  है. इस को आप आम बोल चल की भाषा में प्रयोग होने वाला मत समझे . यहाँ  पर ये व्यापक अर्थ  में प्रयोग हुआ है . इस में ही हमारे जन्म जन्मान्तरो के संस्कार संचित होते है और यही हमारे अस्तित्व के लिए उत्तरदाई है .  
 क्यों की हम ईश्वर के अंश है और ये श्रष्टि इश्वर की ईच्क्षा  मात्र  से हुई . अतः हम जो भी चाहते है  वो हमें मिलता जरुर है और यही  हमारे अगले जन्म का  कारण बनता है . 
पुनर्जनम  की निश्चित प्रक्रिया होती है जिस में व्यवधान ही पड़ने पर  कुछ  समय के लिए  प्रेत योनी  प्राप्त हो सकती है .  अगली पोस्ट में  पुनर्जन्म  प्रक्रिया और प्रेत योनी के बारे में  जानकारी साझा करेंगे

Wednesday, November 24, 2010

तत्व दर्शन परिचय भाग -4 , जल तत्व

जल तत्व की उत्पत्ति अग्नि तत्व के बाद मानी गयी है . जल हमारे जीवन में  सबसे महत्वपूर्ण  है . वायु और अग्नि तत्व मिल कर इस का निर्माण करते है . जहा हम भोजन के बिना महीनो जीवित रह सकते है तो पानी के बिना सिर्फ कुछ दिन . 
चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति से जल आवेशित हो  कर सैकड़ो फुट ऊपर उठ जाता है . हमारे शरीर में भी जल की अधिकता है . तो सोचिये ये जल आवेशित हो कर हमें कितना प्रभावित करता होगा .
जब  हम तत्व के रूप में जल को जानने की कोसिस करते है तो  हम पाते है की यही वो तत्व है जो की   स्रष्टि के निर्माण के बाद जीवन की उत्पत्ति का कारण है .
                                                          जल तत्व की उत्पत्ति 
जल तत्व की उत्त्पत्ति वायु और अग्नि से मानी गयी है . वायु के घर्षण से अग्नि  उत्पन्न हुई और अग्नि ने वायु से जल  का निर्माण किया .
इसे हम विज्ञानं के जरिये समझ सकते है . एक बीकर में हाईड्रोजन  और एक बीकर में आक्सीजन ले कर  उन्हें एक नली से जोड़े . अब हम जैसे ही बेक्ट्री  के जरिये स्पार्क  करेंगे हईड्रोजन के दो अणु आक्सीजन के एक  अणु  से मिल कर जल के एक अणु का निर्माण कर देते है .  जल का निर्माण तब   तक नही होता जब तक की अग्नि न हो . 
यह पर मैं तत्वों का क्रम सिर्फ इस  लिए स्पस्ट कर रहा हू की स्रष्टि के निर्माण क्रम को समझा जा सके . जिस स्रष्टि के निर्माण क्रम को जानने के लिए इतने बड़े प्रयोग हो रहे है और उसे जानने में  अभी और न जाने कितना समय लगेगा उस को तो हमारे ऋषि मुनियों ने हजारो वर्ष पहले खोज लिया था . आगे एक पोस्ट पर मैं इसे स्पष्ट  करूँगा .
लाभ - इस तत्व को जानने वाला अपनी भूख और प्यास पर नियंत्रण पा लेता है .यही कारण था की हमारे ऋषि लम्बे समय तक ध्यान में रहने  पर भी  इस बीच उन को भूख और प्यास नही लगती  थी . ये स्वयं पर विजय का प्रतीक है .
रंग एव आकृति - इस की आकृति अर्ध चाँद जैसी और रंग चांदी के समान माना गया है . ध्यान में इसी आकृति और रंग का ध्यान करते है 
                                  पहचान 
श्वास द्वारा - इस समय श्वास बारह अंगुल तक चल रही होती है . इस समय स्वर भीगा चल रहा होता है .
दर्पण  विधि द्वारा - इस की   आकृति अर्ध चाँद जैसी बनती है
स्वाद द्वारा -     जब यह स्वर चल रहा हो मुख   का  स्वाद कसैला प्रतीत होता है.
रंग द्वारा -        इस का रंग ध्यान में चांदी जैसा प्रतीत होता है 
बीज  मंत्र -      वं  
ध्यान विधि -  सिद्ध आसन में अर्ध चाँद जैसी आकृति को देखे जिस का रंग चांदी जैसा हो और बीज मंत्र का जप करे         



   
 

Sunday, November 14, 2010

तत्व दर्शन परिचय भाग -3,अग्नि तत्व

हमारी सनातन या  वैदिक  संस्कृति यज्ञ संस्कृति  रही है . हम सतयुग से ही अग्नि के उपासक रहे है .अग्नि में सदैव ऊपर उठने का गुण होता है . यदि हम अपने वैदिक ध्वज पर ध्यान दे जो उस का रंग और और उस की आकृति  अग्नि  का प्रतीक है . हमारा तेज जिसे वैज्ञानिक भाषा में हम अपनी  इलेक्ट्रो मैग्नटिक फिल्ड  भी कहते है अग्नि तत्व पर निर्भर करता है .
यह असीम ऊर्जा का स्रोत है . इसे  हम शिव तत्व के नाम से भी जानते है . .जिस की जानकारी पिछली पोस्ट  शिव का वास्तविक स्वरूप में दे चुके है .
किसी भी कार्य चाहे वो अध्यात्मिक वो या सांसारिक हमें ऊर्जा की आवश्यकता होती है . और स्थूल से सूछ्म ऊर्जा अधिक प्रभावी होती है .अग्नि तत्व न सिर्फ हमें प्रभावशली बनता है अपितु हमारी अध्यात्मिक   और सांसारिक उन्नति  भी करता है .
                                        अग्नि तत्व की उत्पत्ति 
वायु तत्व के बाद अग्नि  की उत्त्पत्ति  वायु के घर्षण से मानी जाती है. जितने  भी भी तारे है वो सब वायु के गोले है और उनके  घर्षण ( नाभिकीय संलयन या विखंडन ) से ही  अग्नि की उत्पत्ति हुई .
                                        शरीर और ग्रह में अग्नि तत्व 
शरीर में दोनों कंधे  अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करते है . जव सूर्य स्वर ( दाहिना स्वर ) चल रहा हो और उस में अग्नि तत्व हो तो  ;यह मंगल ग्रह का प्रतिनिधित्व करता है 
जब चन्द्र स्वर चल रहा और अग्नि तत्व हो तो ;यह शुक्र ग्रह का प्रतिनिधित्व करता है .
                              पहचान 

श्वास द्वारा --   जब साँस  ४  अंगुल तक चल रही तो तो अग्नि तत्व होता है 
स्वाद द्वारा -- सूक्ष्म विश्लेषण करने पर मुख का स्वाद तीखा प्रतीत होता है .
रंग द्वारा --     इस का रंग लाल होता है . ध्यान विधि द्वारा इसे हम जान सकते है 
आकृति --      इस की आकृति त्रिकोण होती है 
दर्पण विधि द्वारा --  दर्पण विधि में में हम साँस का प्रवाह ऊपर की तरफ पाएंगे और आकृति त्रिकोण होगी .
बीज मंत्र --     रं
लाभ  --          इस  के प्रयोग से भूख  बढती है , प्यास लगती है , जिन को भूख  न लगती हो तो उस का पयोग करे और निश्चित लाभ पाए . ;ये प्राकतिक प्रयोग है जो निश्चित ही लाभ प्रदान करता है .
युद्ध में या अन्य साहसिक कार्य में सफलता दिलाता है .
जब आप को कभी काफी जोर से क्रोध आये उस वक्त   यदि आप गौर करेंगे तो अग्नि तत्व ही चल रहा होगा .
प्रयोग --   अपने सिद्ध आसन में इस के बीज मंत्र का जाप करते हुए  ध्यान में एक त्रिकोण आकृति जिस का रंग लाल हो देखे 

Saturday, November 6, 2010

तत्व दर्शन परिचय भाग -२, वायु तत्व

श्रष्टि निर्माण क्रम में space  अर्थात आकाश तत्व के बाद वायु तत्व आया ..इसे आप ऐसे समझ सकते है की ब्रह्माण्ड जितने भी तारे है वो गैस के गोले है और उस के बाद ग्रह , उपग्रह . गणिकाए   आदि उन के टूटे हुए भाग है .
जहा वायु के घर्षण से अग्नि उत्त्पन्न होती और तो वही जल भी वायु के  एक निश्चीत अनुपात में बना  मिश्रण मात्र है .
आईये भारतीय दर्शन में इस को  स्पष्ट रूप से समझे .
                                                       वायु तत्व 
इस   तत्व  को साधना बेहद कठिन है  इस की महत्ता इस बात से ही समझ में आती है की हमारा सूक्ष्म शरीर ५ प्रकार की वायु आपान , उदान, व्यान,  समान और प्राण  में और १०  प्रकार की  उपवायु में वर्णित है .
इस तत्व की पहचान निम्न तरीको से कर सकते है .
श्वास द्वारा -- इस की पहचान हम अपनी श्वास द्वारा कर सकते है . यदि श्वास ८  अंगुल तक चल रही हो वायु तत्व चल रहा होता है .इस की लिए आप अपने सर को सीधा रख कर अपनी श्वास की गति अपने हाथ से (हथेली के ठीक विपरीत ) महसूस करे .

स्वाद द्वारा --  सूक्ष्म अध्यन   करने   पर   मुख   का   स्वाद खट्टा   प्रतीत  होता है .

दर्पण विधि द्वारा -- यदि वायु तत्व चल रहा हो तो इस की गति तिरछी होती है . इस का आकार गोल होता है .

रंग --   इस का रंग काला या गहरा नीला होता है .
लाभ -- कुंडली जागरण में जो लाभ है  उस की  पम्पूर्ण लौकिक  सिद्धियाँ इस तत्व में प्राप्त हो जाती है और इन का त्याग कर आकाश तत्व सिद्ध कर साधक परालौकिक  शक्तिया प्राप्त कर  लेता है . स्पष्ट है की बाकि के तीन तत्व तत्व भी इसी से बनते  है अतः  वे स्वयं ही सिद्द हो जाते है .
तंत्र शास्त्र में अनेक विधियाँ आकाश में आवागमन की दी हुई है . जो साधक वायु में चिड़िया की तरह उड़ने की  तथा दूसरो के मन की बात  अपने आप जानने की  इच्छा रखता हो  वह श्रद्धा पूर्वक इस का मंत्र सिद्ध करे .

बीज मंत्र --  यं
साधना विधि --  इस मंत्र की साधना के लिए आप आसान लगा कर बैठ जाये और हवा में स्थिर एक काले गोले का ध्यान करे और इस के बीज मंत्र का उच्चारण करे . 

शरीर  में स्थान -- शरीर में नाभि में इस का स्थान माना जाता है .


 
 
   


 

Friday, October 29, 2010

तत्व दर्शन परिचय - आवश्यक तथ्य

 पिछली पोस्ट में कुछ तत्थ स्पष्ट न हने के कारण  तत्त्व दर्शन को  समझने में  आप लोगो को कठिनाई हुई .मैं इस लिए ये श्रंखला को रोक ये पोस्ट  उन तथ्यों को स्पष्ट करने के लिए है .
                                                                स्वर 
स्वर दो प्रकार के बताये गए है 
सूर्य स्वर - जब आप का दाहिनी तरफ से साँस ले रहे हो तो आप का दाहिना स्वर (सूर्य स्वर ) चल रहा होता है.दाहिनी तरफ पिंगला नाड़ी और बाई तरफ इड़ा  नाड़ी है .  अतः जब पिंगला से स्वर चल रहा हो तो वह सूर्य स्वर है .
 चन्द्र स्वर - जब आप की साँस बाई तरफ से(इड़ा ) चल रही हो तो  चन्द्र स्वर होता है . इस की प्रकति शांत व ठंडी मानी जाती  है जब की सूर्य स्वर की प्रकति गर्म मानी जाती है .
जब सुषुम्ना नाड़ी अर्थात वायु का प्रवाह मध्य  में हो और इड़ा  और पिंगला दोनों से ही वायु प्रवाहित हो रही हो तो इसे संधि काल या संध्या काल कहते है .यह स्थिथि तब उत्त्पन्न होती है जब स्वर बदल रहे हो .हर ढाई घडी में स्वर बदलते रहे है .
इन स्वरों में में बारी बारी से निश्चित क्रम में तत्व चलते है .इन का क्रम निम्न है .
(१)अग्नि 
(२)वायु 
(३)प्रथ्वी 
(४) जल 
जब  पाचवे तत्व की बारी आती है तो वह सुषुम्ना अर्थात बीच में चलता है .यह आकाश तत्व है . इस में इड़ा और पिंगला दोनों से ही वायु प्रवाहित हो रही होती है .इस के बाद स्वर बदल जाता है .जैसे पहले इड़ा में स्वर चल रहा होगा तो सुसुमना के बाद वायु पिंगला में प्रवाहित होने लगेगी और उसी क्रम में फिर चार तत्व चलेंगे .इस प्रार बारी बारी से तत्व दोनों द्वारो में चलते है .
स्वर के ज्ञान से  अगर कोई स्वर के अनुसार कार्य करता है तो वह अवश्य ही सफल होता है .जैसे जब आप घर से निकलते वक्त जिस तरफ   का स्वर हो उस तरफ का अंग पहले बहार निकले तो आप  के सफल होने की संभावना बहुत अधिक बढ़ जाती है .स्वर के बारे में बहुत कुछ है और मैं इस के बारे में अलग से एक पोस्ट लिखूंगा ताकि तत्व विज्ञानं समझ में आ सके . 
                                 तत्वों की पहचान आकृति द्वारा 
तत्वों की पहचान आकृति द्वारा भी कर सकते है . इस के लिए दर्पण विधि का प्रयोग करते है 
दर्पण विधि -- इस में हम दर्पण के सामने खड़े हो कर अपना सर सीधा कर दर्पण पर साँस छोड़ते है और भाप द्वारा बनी आकृति का विश्लेषण कर उस समय चल रहा तत्व ज्ञात कर लेते है .आगे  इस  की जानकारी दी जाएगी .
                                रंग द्वारा पहचान 
रंग द्वारा पहचान करने के लिए सूक्ष्म विश्लेषण की आवश्यकता है . ध्यान अवस्था में रंग पहचान कर तत्व ज्ञात किया जा सकता है .
                              स्वाद द्वारा पहचान 
सूछ्म विश्लेषण  कर मुख के स्वाद पर ध्यान दे .जैसे जिस वक्त आकाश तत्व होगा मुख का स्वाद कडुआ प्रतीत होगा .
 


Tuesday, October 26, 2010

तत्व दर्शन परिचय भाग -1 ,आकाश तत्व

                                                                 तत्व की अवधारणा 
भारतीय दर्शन  में ये ब्रह्माण्ड ५ तत्वों से निर्मित है . हमारा स्थूल और सूक्ष्म शरीर इन्ही तत्वों से निर्मित है .वैसे कुल तत्व २७ मने गए है पर अपने ब्रम्हांड की रचना  ५ तत्वों  से मानी गयी है .ये तत्व ही हमारा  अस्तित्त्व  है .
अगर हम थोडा भी इन के बारे में जान जाये तो बहुत से रहस्य  अपने आप ही खुलने लगते है .प्रत्येक तत्व की अपनी पहचान है .
तत्वों का ज्ञान न सिर्फ आध्यात्मिक और सांसारिक उन्नति दे सकता है बल्कि यह औषधि के गुण  भी रखता है .इस की जानकारी मैं आप को एक अलग पोस्ट में दूंगा .
                                                                 आकाश तत्व  
 बिग बैंग थेओरी  अब प्रमाणिक है जब की हजारो वर्ष पूर्व ये हमारे ऋषि  खोज चुके थे .
सबसे पहले space बनाया गया जिसे हम आकाश तत्व से संबोधित करते है .यही एक मात्र तत्व है   जो परलौकिक शक्ति प्रदान करता है . बाकि के ४ तत्व लौकिक शक्तिया प्रदान करते है . इस तत्व को तभी जाना जा सकता है जब की बाकि  के ४ तत्व ज्ञात हो .   .हमारे शरीर में  इस का स्थान  सहस्त्रार चक्र में माना गया है  सारे तत्व बारी बारी से हमारे  शरीर में प्रधान  होते रहते है अर्थात कुछ घंटो के अंतराल पर तत्व बदलते रहते है . आकाश तत्व कब हमारे शरीर में प्रधान है ये हम निम्न कारणों का विश्लेषण कर के ज्ञात कर सकते है .
(१) संध्या काल- यहाँ  पर दो प्रकार के संध्या काल है .
(क ) ये वह संध्या काल है जिसे हम  प्रभात तथा  संध्या  के नाम से जानते है . इस समय हमारा मन शांत होता है . और हम ईश्वर तत्व के निकट होते है . हमारा मन  क्यों शांत होता है इस को  भी स्पष्ट कर देता हू .
प्रकति में उपस्थित हर कण की अपनी आवृत्ति होती है .जैसे सबसे छोटे कण परमाणु है और और प्रत्येक परमाणु अपनी मध्य स्थिति के दोनों तरफ कम्पन करता रहता है .अर्थात उस की अपनी आवृत्ति होती है . इन की आवृत्ति क्रमशः  बढती  और  और घटती रहती है . रात और दिन के  १२ बजे इसकी आवत्ति अधिकतम  होती है .यही कारण  है की  इस समय हमारा मन विचलित होता है . इसी प्रकार प्रभात और संध्या की इन की आवृत्ति न्यूनतम होती है इस लिए हमारा मन शांत होता है .
 (ख) प्राणायाम तथा अन्य बहुत की जगह जिस संध्या काल का वर्णन है वो यही है .
जब दोनों नथुनों के वायु का प्रवाह एक साथ हो तो यह संध्या काल है इस  समय तत्व बदल रहे होते है और वायु  का प्रवाह  इडा  से पिंगला या पिंगला से इडा की ओर स्थानांतरण हो रहा होता है .इस समय किया गया कोई भी भौतिक कार्य सफल नही होता .सिर्फ आध्यात्मिक कार्य ही सफल होते है .
                                पहचान के अन्य लक्षण 
(रंग ) - अन्य सभी तत्वों के ४ रंगों का मिश्रण , काला रंग 
(स्वाद)- सूछ्म अध्यन पर मुख का स्वाद कडुआ प्रतीत होता है .
(आकृति )- सब की मिश्रण 
(स्थान )-  सहस्त्रार  चक्र 
     इस तत्व का ज्ञान होने पर  भूत , भविष्य और वर्त्तमान में झाकने की शक्ति प्राप्त हो जाती है ..
(बीज मंत्र ) -   हं 
                           
 




 

Wednesday, October 20, 2010

साक्षी भाव

कुछ वर्षो पहले मेरी मुलाकात ऐसे सन्यासी से हुई जो ३५ वर्ष से भी अधिक समय से सन्यासी  था. और इश्वर की कृपा से मुझे उन  से चर्चा का सौभाग्य प्राप्त हुआ . बहुत कुरेदने पर उन्हों ने  ३५ वर्ष का अनुभव साक्षी भाव बताया .जो मुझे समझने में काफी  दिन लग  गए . काफी मनन के बाद जो मैं समझा वो मैं संछेप में आप के सामने रख रहा हू .आप  की राय भी जानना चाहूँगा .
                                                            साक्षी भाव 
हम हर पल कुछ न कुछ कर्म करते है और एक किया गया कर्म   दूसरे कर्म का कारण होता है . दूसरा कर्म तीसरे का कारण है और इस प्रकार ये कार्य कारण की अनन्त श्रंखला चलती  ही  रहती है .और इस श्रंखला के कारण मनुष्य बार बार जन्म लेता है .अब प्रश्न ये है की इस से बहार निकले का उपाय क्या है .क्यों की कर्म तो हम चाहे या न चाहे वो तो हमसे होते ही रहेंगे  कर्महीन होना असंभव  है .
इस का जवाब सिर्फ गीता में ही है और कही  भी नही है .गीता में भगबान श्री कृष्ण  कहते है की   


युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते॥५- १२॥


कर्म के फल का त्याग करने की भावना से युक्त होकर, योगी परम
शान्ति पाता है। लेकिन जो ऍसे युक्त नहीं है, इच्छा पूर्ति के लिये
कर्म के फल से जुड़े होने के कारण वो बँध जाता है॥


 भगवान श्री कृष्ण स्पष्ट रूप से कह रहे है की कर करो फल की इच्छा मत करो .जिसे ऐसा न किया वह निश्चित  ही अच्छा  या बुरा जैसा भी कर्म किया है उस की जिम्मेदारी खुद  लेकर उस का फल भोगने को तैयार है ऐसा समझना चाहिए .
इसी लिए किसी ने सही ही कहा है की सारे दुःख का कारण अपेक्षा है .
साक्षी भाव का मूल है कर्मो में निर्लिप्तता  
                                                        साक्षी भाव विधि 
पिछली पोस्ट में हमने समाधी की चर्चा की थी .पर इस  ८  चरण की विधि तो योगी ही कर  सकते  है . यह पर तो  सुरुआत के ही चरण  मुश्किल लगते है और प्रत्याहार  तक आम व्यक्ति (मैं भी )  संघर्ष ही करता रह   जाता है. प्र्तायाहर का अर्थ है इंद्रियों द्वारा .विषयों का परित्याग .जिस प्रकार हम भोजन लेते है उसी प्रकार हम इंद्रियों से विषय ग्रहण करते है  . इंद्रियों द्वारा सात्विक तत्व ग्रहण कर तामसी वृत्तियों  का  परित्याग ही प्रत्याहार है .
                                                                 इस विधि में हम द्रष्टा होते है स्वयं के 
हम जो भी कर्म करते है वो लिप्त हो कर करते है .उद्दहरण के लिए जब आप  कोई स्वादिष्ट चीज खाते है तो स्वाद का पूरा आनंद लेते है . इसी प्रकार यदि क्रोध या काम  व्यक्ति    लिप्त हो कर  करता है .
जब हम कोई कर्म करे जो अपने ही साक्षी  हो कर ये देखे की ये कौन है जो  यह कर रहा है .जब हम स्वाद ले , क्रोध या काम  में , अन्य विविध कर्मो  में  कर्म करने वाला  अर्थात वह खुद  क्या अनुभव कर रहा है   साक्षी हो कर .ये अनुभव करते  वक्त आप अपने को (द्रष्टा ) अपने अस्तित्व से अलग रक्खे . 
मेरी ये बात शायद कुछ लोगो  को  समझ में न आये पर मनन कीजिये आप स्वयं समझ  जायेंगे .
ये ठीक उसी प्रकार  है  जैसे आप कोई अपनी ही फिल्म देख रहे हो  और वो भी लाइव.
इस  का विचार शुन्यता से गहरा नाता है . इस के चमत्कारिक प्रभाव और उपयोगिता की चर्चा हम अपनी अगली पोस्ट में करेंगे .


   

Sunday, October 17, 2010

विचार शून्य अर्थात समाधि

एक काफी सम्मानित और अच्छे विचारक लेखक है जो विचार शून्य नाम से लेख  लिखते है .बस मन में अर्थ जानने की इच्छा हुई और अपना विचार और निष्कर्ष के रूप में ये लेख लिखा .
विचार आने की प्रक्रिया पर अपना मत  मैं अपने पिछले लेख में  रख चुका हू. वास्तव में हम  विचारो का एक समुच्चय है .जिस के पास जैसे विचारो का संकलन  है उन का व्यक्तित्व भी वैसा ही है .
ईश्वरत्व की प्राप्ति  के लिए 'राज योग' में ८  अंग है  जो क्रमशः  यम ,नियम . आहार , प्रत्याहार ,आसन , ध्यान , योग , समाधि है . यहाँ पर अंतिम अवस्था समाधि है .
राज योग  कुंडली जाग्रत कर देता है . मूलाधार चक्र से सुरु हुआ सफ़र जो योग से आरम्भ होता है अन्तिम चक्र सहस्त्रार चक्र (कमल चक्र )पर प्राण को उस चक्र पर केन्द्रित कर अनन्त  का  द्वार  हमारे लिए खोल देता है .
भक्ति योग भी ईष्ट के ध्यान से आरम्भ हो कर अंततः समाधि पर ही जाता है .

अब  प्रश्न ये है की ये अंतिम अवस्था समाधी क्या है ? 
                                                                       समाधी 
हमारे मष्तिस्क में प्रति सकेंड लगभग ३ विचार तरंग प्रकति के माध्यम से आते है पर उन में से कुछ ही हमारी वृत्ति के अनुसार हमारी अन्तः प्रकति से संयोग कर  के विचार  तरंग में प्रकट हो जाते है .
ये ठीक ऐसा है जैसे की रेडियो का रिसीवर जिस  आवृत्ति  पर सेट किया गया हो उसी आवृत्ति की तरंगे ग्रहण करता है .
इन विचारो के आने के क्रम में जो  समयान्तराल होता है   वह विचार शून्य होता है यही वह समय है जब आत्मा अपने मूल स्वरुप के अत्यंत  निकट होती है.                                                                                      
अर्थात  समय से परे 
समय  घटनाओ के सापेछ होता है और विचार शून्य की अवस्था हमें समय से परे कर देती है .यही समाधी है .इसी लिए कभी कभी तो साधक कई  दिनों तक भी समाधी  में रह लेता है और समय का उसे पता नही चलता है .
समय से परे ही तो ईश्वर है .और समाधी हमें वह अनुभव देती है .
सच मानिये इस दुनिया का सवसे कठिन कार्य जो हमारी सीमा से अन्दर है विचार शून्य होना ही है .यदि आप  सोचते है की मैं कुछ नही विचार करूँगा  तो यह भी एक विचार है.
आंख बंद कर किसी  पर ध्यान लगाना भी विचार है  .
यदि आप सोचते है की आप सोते में विचार शून्य है  तो भी आप गलत है .क्यों की उस वक्ते हमारा मष्तिस्क हमारी अतृप्त इच्छाओ को  जो हमारे अचेतन मन में है , सपने   के  रूप में तृप्त  कर  वह गांठ  खोलने का कार्य करता है .शायद इसी लिए कहते है जो मांगो वो ईश्वर देता है ,
इस अवस्था में आने का अष्टांग योग ( राज योग ) के अलग एक और मार्ग है जो देखने में बहुत सरल  है पर अभ्यास करने पर ये भ्रम टूट जाता है .
इस का नाम है   साक्षी भाव 
 

Sunday, October 10, 2010

मनुष्य और संगणक (computer)- समानताए

मनुष्य और संगणक में अनेक समानताए है . यदि इन में अंतर करने को कहा जाये तो पहला जवाब होता है की संगणक निर्देशों पर कार्य करता है पर मनुष्य अपनी इच्छा से .आईये  इन की समानताओ के कुछ बिन्दुओ पर विचार करते है.
(१) मनुष्य और संगणक दोनों ही निर्देशों पर कार्य करते है 




.मनुष्य विचारो का एक समुच्चय (संगठन ) है . 

वास्तव में मनुष्य विचारो का संगठन है .वो व्यक्ति कैसा है ये उस के समुच्चय में उपस्थित विचार ही निर्धारित करते है . पहले विचार आते है  फिर वो मनुष्य के द्वारा  कर्म के रूप में प्रकट हो जाते है .और ये कर्म ही उस की गति और व्यक्तित्व के लिए उत्तरदाई है .
                                                                अर्थात 
कर्म का बीज विचार है .
अब प्रश्न ये उठता है की विचार कहा से आते है .
विचार प्रकति के द्वारा प्रेषित होते है . 
हम  जो भी देखते और सुनते है  या अपनी इंद्रियों से ग्रहण करते है मष्तिष्क में सूछ्म तरंग के रूप में विचार आता है और हम जो भी इन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण  कर  करते है वो सब प्रकति (माया ) के अन्दर ही है .
अर्थात प्रकति ही हमें विचार करवाती  है और हम कर्म के लिए प्रेरित हो कर कर्म करते है .
उद्धहरण -    यदि  मेरे सामने स्वादिष्ट व्यंजन रक्खे हो  तो उन को देख कर यदि भूख लगी होगी तो उन्हें खाने की इच्छा  अन्यथा अनिक्छा  होगी .
                                                                         अर्थात 
वाह्य प्रकति द्वारा प्रेषित  विछोभ (तरंग ) हमारी अन्तः प्रकति से संयोग कर के विचार उत्पन्न करती है .अतः 
मनुष्य प्रकति के द्वारा संचालित है 
(२) जिस प्रकार  संगणक में हार्डवेअर और साफ्टवेअर  है ठीक यही व्यवस्था मनुष्य में भी  है
संगणक में जिस को हम छू  सके वह हार्डवेअर और जिसे न छू  सके वो साफ्टवेअर कहलाता है .
मनुष्य के  स्थूल शरीर को हम हार्डवेअर और जीव , मन, बुद्धि को साफ्टवेअर  मान सकते है .
 (3) संगणक विद्धुत ऊर्जा से चलता है और मनुष्य की वास्तविक ऊर्जा प्राण द्वारा उत्पन्न सूछ्म विद्धुत ऊर्जा है .
(४) दोनों में ही स्मृति कोष है .
संगणक में दो प्रकार की मेमोरी होती है 
(अ) रीड ओनली मेमोरी ( अस्थाई )
(ब) रेंडम एक्सिस मेमोरी   (स्थाई )
मनुष्य में भी इसी प्रकार की स्मृति है . दिन भर हम जो भी करते है उस का अधिकांश भाग हमें याद नही रहता पर कुछ चीजे हमारी स्मृति कोष में recall करने पर तुरंत ही याद आ जाती है .अर्थात हम अपनी यादो को संगणक की स्थाई मेमोरी से तुलना कर सकते है .
(५) संगणक की तरह हमारे मष्तिस्क में भी फोल्डर और  एक जैसे   फोल्डर्स  को संगठित करती हुई फाईल्स  होती हैं .
ये बात शायद आप को अजीब लगे पर सत्य है .आईये देखते है कैसे ?
 .दरसल सूचनाए  एक तरंग के रूप में एक विशिष्ट जगह पर संचित हो जाती है.  ये एक  जैसी तरंगे  एक  पोटली जिसे ज्ञान कोष (फोल्डर ) कहते है संचित हो जाती है .
जान हम कोए नई चीज देखते है तो पिछले सारे फोल्डर  से तुलना की  जाती है जब  वांछित सूचना नही मिलती है तो एक नया फोल्डर उस सूचना को संचित कर लेता है और भविष्य में यही फोल्डर जानकारी उपलव्ध कराता है .
भ्रम की स्तिथि तब उत्त्पन्न होती है जब हम किसी सूचना  के लिए गलत ज्ञानकोष  या उसी ज्ञानकोष का गलत फोल्डर  गलती से आ जाता है .