हमारी सनातन या वैदिक संस्कृति यज्ञ संस्कृति रही है . हम सतयुग से ही अग्नि के उपासक रहे है .अग्नि में सदैव ऊपर उठने का गुण होता है . यदि हम अपने वैदिक ध्वज पर ध्यान दे जो उस का रंग और और उस की आकृति अग्नि का प्रतीक है . हमारा तेज जिसे वैज्ञानिक भाषा में हम अपनी इलेक्ट्रो मैग्नटिक फिल्ड भी कहते है अग्नि तत्व पर निर्भर करता है .
यह असीम ऊर्जा का स्रोत है . इसे हम शिव तत्व के नाम से भी जानते है . .जिस की जानकारी पिछली पोस्ट शिव का वास्तविक स्वरूप में दे चुके है .
किसी भी कार्य चाहे वो अध्यात्मिक वो या सांसारिक हमें ऊर्जा की आवश्यकता होती है . और स्थूल से सूछ्म ऊर्जा अधिक प्रभावी होती है .अग्नि तत्व न सिर्फ हमें प्रभावशली बनता है अपितु हमारी अध्यात्मिक और सांसारिक उन्नति भी करता है .
अग्नि तत्व की उत्पत्ति
वायु तत्व के बाद अग्नि की उत्त्पत्ति वायु के घर्षण से मानी जाती है. जितने भी भी तारे है वो सब वायु के गोले है और उनके घर्षण ( नाभिकीय संलयन या विखंडन ) से ही अग्नि की उत्पत्ति हुई .
शरीर और ग्रह में अग्नि तत्व
शरीर में दोनों कंधे अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करते है . जव सूर्य स्वर ( दाहिना स्वर ) चल रहा हो और उस में अग्नि तत्व हो तो ;यह मंगल ग्रह का प्रतिनिधित्व करता है
जब चन्द्र स्वर चल रहा और अग्नि तत्व हो तो ;यह शुक्र ग्रह का प्रतिनिधित्व करता है .
पहचान
श्वास द्वारा -- जब साँस ४ अंगुल तक चल रही तो तो अग्नि तत्व होता है
स्वाद द्वारा -- सूक्ष्म विश्लेषण करने पर मुख का स्वाद तीखा प्रतीत होता है .
रंग द्वारा -- इस का रंग लाल होता है . ध्यान विधि द्वारा इसे हम जान सकते है
आकृति -- इस की आकृति त्रिकोण होती है
दर्पण विधि द्वारा -- दर्पण विधि में में हम साँस का प्रवाह ऊपर की तरफ पाएंगे और आकृति त्रिकोण होगी .
बीज मंत्र -- रं
लाभ -- इस के प्रयोग से भूख बढती है , प्यास लगती है , जिन को भूख न लगती हो तो उस का पयोग करे और निश्चित लाभ पाए . ;ये प्राकतिक प्रयोग है जो निश्चित ही लाभ प्रदान करता है .
युद्ध में या अन्य साहसिक कार्य में सफलता दिलाता है .
जब आप को कभी काफी जोर से क्रोध आये उस वक्त यदि आप गौर करेंगे तो अग्नि तत्व ही चल रहा होगा .
प्रयोग -- अपने सिद्ध आसन में इस के बीज मंत्र का जाप करते हुए ध्यान में एक त्रिकोण आकृति जिस का रंग लाल हो देखे .
8 comments:
बहद सुन्दर जानकारी दी है आपने। और बढ़िया उपाय भी बताये --आभार ।
जहां तक 'बेनामी' का प्रश्न है, "भगवान् किसी भी रूप में आ सकता है", और इस कारण कथन "अतिथि देवो भव" आदि, मान्यता रही है 'भारतियों' की, प्राचीन ज्ञानी योगियों, ऋषियों, सिद्धों आदि की, जिन्होंने परम सत्य, निराकार ब्रह्म, को सबके मन में ही पाया (supt teesari aankh' में) और 'माया' अथव 'सत्य' का प्रचार किया अपना सांसारिक नाम बदल-बदल,,,जो झलकता है 'शेक्सपियर' के शब्दों में भी जैसे कि "यह धरा एक स्टेज है और हर व्यक्ति एक कलाकार,,," या "नाम में क्या धरा है...आदि",,,गीता से भी हम वो ही उद्घृत करते हैं जिससे हमें कोई निज स्वार्थ में भौतिक लाभ की आशा होती है,,,आम आदमी ('किसी भी धर्म से सम्बंधित') तो पढना ही नहीं चाहता (या अनपढ़ अधिक हैं) और इस प्रकार 'साधू के रूप में भेड़ियों' को मौका मिल जाता है उनका 'मांस नोचने को', क्योंकि यह भी सभी को पता है कि किसी भी विषय पर पुस्तक आदि में लिखित शब्दों को सही रूप में समझने के लिए किसी 'सही गुरु' का होना आवश्यक है...
-जीवन चन्द्र जोशी
आपके माध्यम से कुछ अध्यात्मिक जानकारी मिल जाती है....धन्यवाद
हर शब्द को ध्यान से पढ़ा तो समझ आया ..... बडी सुंदर जानकारी है....
मैं यह और कहना चाहूँगा कि जहां तक मानव जीवन के लक्ष्य का सम्बन्ध है, भागवद गीता के अनुसार, वो केवल निराकार ब्रह्म और उसके साकार रूपों को जानना मात्र ही है...
प्रकृति में व्याप्त शून्य से अनंत तक विविधता की मानव जीवन में भी झलक देख 'पहुंचे हुए', यानि उच्च स्तर को प्राप्त, योगियों ने मानव शरीर को ब्रह्माण्ड का प्रतिरूप जाना और इसे 'नवग्रह' और 'अष्ट चक्र' द्वारा निर्धारित जान नौ ग्रहों (हमारे सौर मंडल के सदस्यों) के सार से बना पाया: मेरुदंड पर मूलाधार से सहस्त्रधारा, अथवा सहस्रारा, चक्र तक आठ बिन्दुओं में केन्द्रित (हरेक एक दिशा का एक राजा, निराकार का ही एक प्रतिबिम्ब),,,और इस प्रकार संकेत करते कि परम ज्ञानी यानि निराकार ब्रह्म को प्राप्त करने हेतु 'कुण्डलिनी जागरण' की आवश्यकता है (यानि अथक अभ्यास और प्रयास से आठों केन्द्रों में उपलब्ध शक्ति अथवा सूचना को मानव मस्तिष्क तक एक बिंदु पर पहुंचाना, नवें ग्रह शनि के सार से बने 'नर्वस सिस्टम' द्वारा जो ऊपरी और निचली दोनों दिशाओं का राजा है),,,इत्यादि इत्यादि...
Bahut achhi jankari di hai aapne ...
aapne hamari post par comment karke hamara maan badhaya dhanyawad..
गीता में 'निराकार कृष्ण', जो सब साकार 'मायावी रूप' धारण किये हुए प्राणियों के भीतर विराजमान हैं, कहते हैं कि कोई भी उन्हें पा सकता है,,,(किन्तु उसके लिए भौतिक विषयों का ज्ञानवर्धन ही नहीं अपितु सिद्धि प्राप्ति द्वारा 'सत्यम शिवम् सुन्दरम' कथनानुसार शिव अथवा अजन्मे और अनंत निराकार ब्रह्म तक भी (मन में) पहुंचना आवश्यक है!
हमारा ग्रह, यानि पृथ्वी, सम्पूर्ण तारामंडल में सबसे सुन्दर है, यह तो हर खगोलशास्त्री (आधुनिक 'सत्यान्वेषी') आज भी जानता और मानता है,,,और यह भी कि चन्द्रमा की उत्पत्ति पृथ्वी से ही हुई...
इस पृष्ठभूमि द्वारा शायद अनुमान लगाया जा सकता है कि पञ्च तत्वों से बने इस साकार पिंड को सांकेतिक भाषा में प्राचीन योगियों ने शिव और शक्ति (अर्धनारीश्वर शिव की अर्धांगिनी 'सती') दर्शाया,,,
तत्पश्चात काल, (जिसका नियंत्रक 'महाकाल शिव' को दर्शाया), यानि समय और उसके साथ-साथ बदलती प्रकृति को ध्यान में रख धरा को 'गंगाधर शिव' कह और तस्वीरों में चन्द्रमा (संस्कृत में 'इंदु', जो 'हिन्दू' शब्द का मूल है) को इनके मस्तक पर दिखा,,, और शिव की दूसरी पत्नी पार्वती को कालान्तर में सती का ही एक स्वरुप कह संकेत किया चन्द्रमा को ही सांकेतिक भाषा में 'पार्वती' नाम से पुकारे जाने का,,, और उनको 'हिन्दू मान्यतानुसार' सर्वोच्च स्थान दिए जाने का, और यूं चन्द्रमा के सार का स्थान मानव मस्तिष्क में ही समझे जाने का संकेत,,,,(आरम्भ में जम्बुद्वीप, 'भारत', के मस्तक पर ताज समान हिमालय पर्वत, और शिव-पार्वती के निवास स्थान कैलाश पर्वत के चरण पर स्थित 'मानसरोवर' झील का प्रतिरूप जहाँ से हिमालय की पृथ्वी के कोख से जन्म लेने के उपरांत पतित पावनी गंगा माता की शहस्त्र धाराएं भारत भूमि की मिटटी को पवित्र करती आई हैं, और जोगियों को जन्म देती) ...
अभिषेक बहुत सुन्दर व्याख्या वायु, अग्नि व जल उत्पत्ति की----रिग वेद में स्रिष्टि-रचना में स्पष्ट वर्णन है--मैं अपने महाकाव्य श्रिष्टि( ईषत इच्छा या बिगबेन्ग से-एक अनुत्तरित उत्तर) से ..दो छंद लिखता हूं--
जुः रूपी उस महाकाश में,
यतः रूप गतिशील कणों का;
सूक्ष्म भव जो मूल अदिति का,
वायु नाम से प्रवहमान था;
इन तीनों के मध्य परस्पर,
विद्युत वोभव अग्नि कहलाया॥
वायु से अग्नि ,मन और जल बने,
सब ऊर्ज़ायें बनी अग्नि से;
जल से सब जड तत्व बनगये।
मन से स्वत्व व भाव,अहं सब,
बुद्धि व्रत्ति,और तन्मात्रायें।;
सभी इन्द्रियां बनी स्वत्व से ॥
Post a Comment