पिछली पोस्ट में कुछ तत्थ स्पष्ट न हने के कारण तत्त्व दर्शन को समझने में आप लोगो को कठिनाई हुई .मैं इस लिए ये श्रंखला को रोक ये पोस्ट उन तथ्यों को स्पष्ट करने के लिए है .
स्वर
स्वर दो प्रकार के बताये गए है
सूर्य स्वर - जब आप का दाहिनी तरफ से साँस ले रहे हो तो आप का दाहिना स्वर (सूर्य स्वर ) चल रहा होता है.दाहिनी तरफ पिंगला नाड़ी और बाई तरफ इड़ा नाड़ी है . अतः जब पिंगला से स्वर चल रहा हो तो वह सूर्य स्वर है .
चन्द्र स्वर - जब आप की साँस बाई तरफ से(इड़ा ) चल रही हो तो चन्द्र स्वर होता है . इस की प्रकति शांत व ठंडी मानी जाती है जब की सूर्य स्वर की प्रकति गर्म मानी जाती है .
जब सुषुम्ना नाड़ी अर्थात वायु का प्रवाह मध्य में हो और इड़ा और पिंगला दोनों से ही वायु प्रवाहित हो रही हो तो इसे संधि काल या संध्या काल कहते है .यह स्थिथि तब उत्त्पन्न होती है जब स्वर बदल रहे हो .हर ढाई घडी में स्वर बदलते रहे है .
इन स्वरों में में बारी बारी से निश्चित क्रम में तत्व चलते है .इन का क्रम निम्न है .
(१)अग्नि
(२)वायु
(३)प्रथ्वी
(४) जल
जब पाचवे तत्व की बारी आती है तो वह सुषुम्ना अर्थात बीच में चलता है .यह आकाश तत्व है . इस में इड़ा और पिंगला दोनों से ही वायु प्रवाहित हो रही होती है .इस के बाद स्वर बदल जाता है .जैसे पहले इड़ा में स्वर चल रहा होगा तो सुसुमना के बाद वायु पिंगला में प्रवाहित होने लगेगी और उसी क्रम में फिर चार तत्व चलेंगे .इस प्रार बारी बारी से तत्व दोनों द्वारो में चलते है .
स्वर के ज्ञान से अगर कोई स्वर के अनुसार कार्य करता है तो वह अवश्य ही सफल होता है .जैसे जब आप घर से निकलते वक्त जिस तरफ का स्वर हो उस तरफ का अंग पहले बहार निकले तो आप के सफल होने की संभावना बहुत अधिक बढ़ जाती है .स्वर के बारे में बहुत कुछ है और मैं इस के बारे में अलग से एक पोस्ट लिखूंगा ताकि तत्व विज्ञानं समझ में आ सके .
तत्वों की पहचान आकृति द्वारा
तत्वों की पहचान आकृति द्वारा भी कर सकते है . इस के लिए दर्पण विधि का प्रयोग करते है
दर्पण विधि -- इस में हम दर्पण के सामने खड़े हो कर अपना सर सीधा कर दर्पण पर साँस छोड़ते है और भाप द्वारा बनी आकृति का विश्लेषण कर उस समय चल रहा तत्व ज्ञात कर लेते है .आगे इस की जानकारी दी जाएगी .
रंग द्वारा पहचान
रंग द्वारा पहचान करने के लिए सूक्ष्म विश्लेषण की आवश्यकता है . ध्यान अवस्था में रंग पहचान कर तत्व ज्ञात किया जा सकता है .
स्वाद द्वारा पहचान
सूछ्म विश्लेषण कर मुख के स्वाद पर ध्यान दे .जैसे जिस वक्त आकाश तत्व होगा मुख का स्वाद कडुआ प्रतीत होगा .
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Friday, October 29, 2010
Tuesday, October 26, 2010
तत्व दर्शन परिचय भाग -1 ,आकाश तत्व
तत्व की अवधारणा
भारतीय दर्शन में ये ब्रह्माण्ड ५ तत्वों से निर्मित है . हमारा स्थूल और सूक्ष्म शरीर इन्ही तत्वों से निर्मित है .वैसे कुल तत्व २७ मने गए है पर अपने ब्रम्हांड की रचना ५ तत्वों से मानी गयी है .ये तत्व ही हमारा अस्तित्त्व है .
अगर हम थोडा भी इन के बारे में जान जाये तो बहुत से रहस्य अपने आप ही खुलने लगते है .प्रत्येक तत्व की अपनी पहचान है .
तत्वों का ज्ञान न सिर्फ आध्यात्मिक और सांसारिक उन्नति दे सकता है बल्कि यह औषधि के गुण भी रखता है .इस की जानकारी मैं आप को एक अलग पोस्ट में दूंगा .
आकाश तत्व
बिग बैंग थेओरी अब प्रमाणिक है जब की हजारो वर्ष पूर्व ये हमारे ऋषि खोज चुके थे .
सबसे पहले space बनाया गया जिसे हम आकाश तत्व से संबोधित करते है .यही एक मात्र तत्व है जो परलौकिक शक्ति प्रदान करता है . बाकि के ४ तत्व लौकिक शक्तिया प्रदान करते है . इस तत्व को तभी जाना जा सकता है जब की बाकि के ४ तत्व ज्ञात हो . .हमारे शरीर में इस का स्थान सहस्त्रार चक्र में माना गया है सारे तत्व बारी बारी से हमारे शरीर में प्रधान होते रहते है अर्थात कुछ घंटो के अंतराल पर तत्व बदलते रहते है . आकाश तत्व कब हमारे शरीर में प्रधान है ये हम निम्न कारणों का विश्लेषण कर के ज्ञात कर सकते है .
(१) संध्या काल- यहाँ पर दो प्रकार के संध्या काल है .
(क ) ये वह संध्या काल है जिसे हम प्रभात तथा संध्या के नाम से जानते है . इस समय हमारा मन शांत होता है . और हम ईश्वर तत्व के निकट होते है . हमारा मन क्यों शांत होता है इस को भी स्पष्ट कर देता हू .
प्रकति में उपस्थित हर कण की अपनी आवृत्ति होती है .जैसे सबसे छोटे कण परमाणु है और और प्रत्येक परमाणु अपनी मध्य स्थिति के दोनों तरफ कम्पन करता रहता है .अर्थात उस की अपनी आवृत्ति होती है . इन की आवृत्ति क्रमशः बढती और और घटती रहती है . रात और दिन के १२ बजे इसकी आवत्ति अधिकतम होती है .यही कारण है की इस समय हमारा मन विचलित होता है . इसी प्रकार प्रभात और संध्या की इन की आवृत्ति न्यूनतम होती है इस लिए हमारा मन शांत होता है .
(ख) प्राणायाम तथा अन्य बहुत की जगह जिस संध्या काल का वर्णन है वो यही है .
जब दोनों नथुनों के वायु का प्रवाह एक साथ हो तो यह संध्या काल है इस समय तत्व बदल रहे होते है और वायु का प्रवाह इडा से पिंगला या पिंगला से इडा की ओर स्थानांतरण हो रहा होता है .इस समय किया गया कोई भी भौतिक कार्य सफल नही होता .सिर्फ आध्यात्मिक कार्य ही सफल होते है .
पहचान के अन्य लक्षण
(रंग ) - अन्य सभी तत्वों के ४ रंगों का मिश्रण , काला रंग
(स्वाद)- सूछ्म अध्यन पर मुख का स्वाद कडुआ प्रतीत होता है .
(आकृति )- सब की मिश्रण
(स्थान )- सहस्त्रार चक्र
इस तत्व का ज्ञान होने पर भूत , भविष्य और वर्त्तमान में झाकने की शक्ति प्राप्त हो जाती है ..
(बीज मंत्र ) - हं
भारतीय दर्शन में ये ब्रह्माण्ड ५ तत्वों से निर्मित है . हमारा स्थूल और सूक्ष्म शरीर इन्ही तत्वों से निर्मित है .वैसे कुल तत्व २७ मने गए है पर अपने ब्रम्हांड की रचना ५ तत्वों से मानी गयी है .ये तत्व ही हमारा अस्तित्त्व है .
अगर हम थोडा भी इन के बारे में जान जाये तो बहुत से रहस्य अपने आप ही खुलने लगते है .प्रत्येक तत्व की अपनी पहचान है .
तत्वों का ज्ञान न सिर्फ आध्यात्मिक और सांसारिक उन्नति दे सकता है बल्कि यह औषधि के गुण भी रखता है .इस की जानकारी मैं आप को एक अलग पोस्ट में दूंगा .
आकाश तत्व
बिग बैंग थेओरी अब प्रमाणिक है जब की हजारो वर्ष पूर्व ये हमारे ऋषि खोज चुके थे .
सबसे पहले space बनाया गया जिसे हम आकाश तत्व से संबोधित करते है .यही एक मात्र तत्व है जो परलौकिक शक्ति प्रदान करता है . बाकि के ४ तत्व लौकिक शक्तिया प्रदान करते है . इस तत्व को तभी जाना जा सकता है जब की बाकि के ४ तत्व ज्ञात हो . .हमारे शरीर में इस का स्थान सहस्त्रार चक्र में माना गया है सारे तत्व बारी बारी से हमारे शरीर में प्रधान होते रहते है अर्थात कुछ घंटो के अंतराल पर तत्व बदलते रहते है . आकाश तत्व कब हमारे शरीर में प्रधान है ये हम निम्न कारणों का विश्लेषण कर के ज्ञात कर सकते है .
(१) संध्या काल- यहाँ पर दो प्रकार के संध्या काल है .
(क ) ये वह संध्या काल है जिसे हम प्रभात तथा संध्या के नाम से जानते है . इस समय हमारा मन शांत होता है . और हम ईश्वर तत्व के निकट होते है . हमारा मन क्यों शांत होता है इस को भी स्पष्ट कर देता हू .
प्रकति में उपस्थित हर कण की अपनी आवृत्ति होती है .जैसे सबसे छोटे कण परमाणु है और और प्रत्येक परमाणु अपनी मध्य स्थिति के दोनों तरफ कम्पन करता रहता है .अर्थात उस की अपनी आवृत्ति होती है . इन की आवृत्ति क्रमशः बढती और और घटती रहती है . रात और दिन के १२ बजे इसकी आवत्ति अधिकतम होती है .यही कारण है की इस समय हमारा मन विचलित होता है . इसी प्रकार प्रभात और संध्या की इन की आवृत्ति न्यूनतम होती है इस लिए हमारा मन शांत होता है .
(ख) प्राणायाम तथा अन्य बहुत की जगह जिस संध्या काल का वर्णन है वो यही है .
जब दोनों नथुनों के वायु का प्रवाह एक साथ हो तो यह संध्या काल है इस समय तत्व बदल रहे होते है और वायु का प्रवाह इडा से पिंगला या पिंगला से इडा की ओर स्थानांतरण हो रहा होता है .इस समय किया गया कोई भी भौतिक कार्य सफल नही होता .सिर्फ आध्यात्मिक कार्य ही सफल होते है .
पहचान के अन्य लक्षण
(रंग ) - अन्य सभी तत्वों के ४ रंगों का मिश्रण , काला रंग
(स्वाद)- सूछ्म अध्यन पर मुख का स्वाद कडुआ प्रतीत होता है .
(आकृति )- सब की मिश्रण
(स्थान )- सहस्त्रार चक्र
इस तत्व का ज्ञान होने पर भूत , भविष्य और वर्त्तमान में झाकने की शक्ति प्राप्त हो जाती है ..
(बीज मंत्र ) - हं
Wednesday, October 20, 2010
साक्षी भाव
कुछ वर्षो पहले मेरी मुलाकात ऐसे सन्यासी से हुई जो ३५ वर्ष से भी अधिक समय से सन्यासी था. और इश्वर की कृपा से मुझे उन से चर्चा का सौभाग्य प्राप्त हुआ . बहुत कुरेदने पर उन्हों ने ३५ वर्ष का अनुभव साक्षी भाव बताया .जो मुझे समझने में काफी दिन लग गए . काफी मनन के बाद जो मैं समझा वो मैं संछेप में आप के सामने रख रहा हू .आप की राय भी जानना चाहूँगा .
साक्षी भाव
हम हर पल कुछ न कुछ कर्म करते है और एक किया गया कर्म दूसरे कर्म का कारण होता है . दूसरा कर्म तीसरे का कारण है और इस प्रकार ये कार्य कारण की अनन्त श्रंखला चलती ही रहती है .और इस श्रंखला के कारण मनुष्य बार बार जन्म लेता है .अब प्रश्न ये है की इस से बहार निकले का उपाय क्या है .क्यों की कर्म तो हम चाहे या न चाहे वो तो हमसे होते ही रहेंगे कर्महीन होना असंभव है .
इस का जवाब सिर्फ गीता में ही है और कही भी नही है .गीता में भगबान श्री कृष्ण कहते है की
कर्म के फल का त्याग करने की भावना से युक्त होकर, योगी परम
शान्ति पाता है। लेकिन जो ऍसे युक्त नहीं है, इच्छा पूर्ति के लिये
कर्म के फल से जुड़े होने के कारण वो बँध जाता है॥
भगवान श्री कृष्ण स्पष्ट रूप से कह रहे है की कर करो फल की इच्छा मत करो .जिसे ऐसा न किया वह निश्चित ही अच्छा या बुरा जैसा भी कर्म किया है उस की जिम्मेदारी खुद लेकर उस का फल भोगने को तैयार है ऐसा समझना चाहिए .
इसी लिए किसी ने सही ही कहा है की सारे दुःख का कारण अपेक्षा है .
साक्षी भाव का मूल है कर्मो में निर्लिप्तता
साक्षी भाव विधि
पिछली पोस्ट में हमने समाधी की चर्चा की थी .पर इस ८ चरण की विधि तो योगी ही कर सकते है . यह पर तो सुरुआत के ही चरण मुश्किल लगते है और प्रत्याहार तक आम व्यक्ति (मैं भी ) संघर्ष ही करता रह जाता है. प्र्तायाहर का अर्थ है इंद्रियों द्वारा .विषयों का परित्याग .जिस प्रकार हम भोजन लेते है उसी प्रकार हम इंद्रियों से विषय ग्रहण करते है . इंद्रियों द्वारा सात्विक तत्व ग्रहण कर तामसी वृत्तियों का परित्याग ही प्रत्याहार है .
इस विधि में हम द्रष्टा होते है स्वयं के
हम जो भी कर्म करते है वो लिप्त हो कर करते है .उद्दहरण के लिए जब आप कोई स्वादिष्ट चीज खाते है तो स्वाद का पूरा आनंद लेते है . इसी प्रकार यदि क्रोध या काम व्यक्ति लिप्त हो कर करता है .
जब हम कोई कर्म करे जो अपने ही साक्षी हो कर ये देखे की ये कौन है जो यह कर रहा है .जब हम स्वाद ले , क्रोध या काम में , अन्य विविध कर्मो में कर्म करने वाला अर्थात वह खुद क्या अनुभव कर रहा है साक्षी हो कर .ये अनुभव करते वक्त आप अपने को (द्रष्टा ) अपने अस्तित्व से अलग रक्खे .
मेरी ये बात शायद कुछ लोगो को समझ में न आये पर मनन कीजिये आप स्वयं समझ जायेंगे .
ये ठीक उसी प्रकार है जैसे आप कोई अपनी ही फिल्म देख रहे हो और वो भी लाइव.
इस का विचार शुन्यता से गहरा नाता है . इस के चमत्कारिक प्रभाव और उपयोगिता की चर्चा हम अपनी अगली पोस्ट में करेंगे .
साक्षी भाव
हम हर पल कुछ न कुछ कर्म करते है और एक किया गया कर्म दूसरे कर्म का कारण होता है . दूसरा कर्म तीसरे का कारण है और इस प्रकार ये कार्य कारण की अनन्त श्रंखला चलती ही रहती है .और इस श्रंखला के कारण मनुष्य बार बार जन्म लेता है .अब प्रश्न ये है की इस से बहार निकले का उपाय क्या है .क्यों की कर्म तो हम चाहे या न चाहे वो तो हमसे होते ही रहेंगे कर्महीन होना असंभव है .
इस का जवाब सिर्फ गीता में ही है और कही भी नही है .गीता में भगबान श्री कृष्ण कहते है की
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्। अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते॥५- १२॥
कर्म के फल का त्याग करने की भावना से युक्त होकर, योगी परम
शान्ति पाता है। लेकिन जो ऍसे युक्त नहीं है, इच्छा पूर्ति के लिये
कर्म के फल से जुड़े होने के कारण वो बँध जाता है॥
भगवान श्री कृष्ण स्पष्ट रूप से कह रहे है की कर करो फल की इच्छा मत करो .जिसे ऐसा न किया वह निश्चित ही अच्छा या बुरा जैसा भी कर्म किया है उस की जिम्मेदारी खुद लेकर उस का फल भोगने को तैयार है ऐसा समझना चाहिए .
इसी लिए किसी ने सही ही कहा है की सारे दुःख का कारण अपेक्षा है .
साक्षी भाव का मूल है कर्मो में निर्लिप्तता
साक्षी भाव विधि
पिछली पोस्ट में हमने समाधी की चर्चा की थी .पर इस ८ चरण की विधि तो योगी ही कर सकते है . यह पर तो सुरुआत के ही चरण मुश्किल लगते है और प्रत्याहार तक आम व्यक्ति (मैं भी ) संघर्ष ही करता रह जाता है. प्र्तायाहर का अर्थ है इंद्रियों द्वारा .विषयों का परित्याग .जिस प्रकार हम भोजन लेते है उसी प्रकार हम इंद्रियों से विषय ग्रहण करते है . इंद्रियों द्वारा सात्विक तत्व ग्रहण कर तामसी वृत्तियों का परित्याग ही प्रत्याहार है .
इस विधि में हम द्रष्टा होते है स्वयं के
हम जो भी कर्म करते है वो लिप्त हो कर करते है .उद्दहरण के लिए जब आप कोई स्वादिष्ट चीज खाते है तो स्वाद का पूरा आनंद लेते है . इसी प्रकार यदि क्रोध या काम व्यक्ति लिप्त हो कर करता है .
जब हम कोई कर्म करे जो अपने ही साक्षी हो कर ये देखे की ये कौन है जो यह कर रहा है .जब हम स्वाद ले , क्रोध या काम में , अन्य विविध कर्मो में कर्म करने वाला अर्थात वह खुद क्या अनुभव कर रहा है साक्षी हो कर .ये अनुभव करते वक्त आप अपने को (द्रष्टा ) अपने अस्तित्व से अलग रक्खे .
मेरी ये बात शायद कुछ लोगो को समझ में न आये पर मनन कीजिये आप स्वयं समझ जायेंगे .
ये ठीक उसी प्रकार है जैसे आप कोई अपनी ही फिल्म देख रहे हो और वो भी लाइव.
इस का विचार शुन्यता से गहरा नाता है . इस के चमत्कारिक प्रभाव और उपयोगिता की चर्चा हम अपनी अगली पोस्ट में करेंगे .
Sunday, October 17, 2010
विचार शून्य अर्थात समाधि
एक काफी सम्मानित और अच्छे विचारक लेखक है जो विचार शून्य नाम से लेख लिखते है .बस मन में अर्थ जानने की इच्छा हुई और अपना विचार और निष्कर्ष के रूप में ये लेख लिखा .
विचार आने की प्रक्रिया पर अपना मत मैं अपने पिछले लेख में रख चुका हू. वास्तव में हम विचारो का एक समुच्चय है .जिस के पास जैसे विचारो का संकलन है उन का व्यक्तित्व भी वैसा ही है .
ईश्वरत्व की प्राप्ति के लिए 'राज योग' में ८ अंग है जो क्रमशः यम ,नियम . आहार , प्रत्याहार ,आसन , ध्यान , योग , समाधि है . यहाँ पर अंतिम अवस्था समाधि है .
राज योग कुंडली जाग्रत कर देता है . मूलाधार चक्र से सुरु हुआ सफ़र जो योग से आरम्भ होता है अन्तिम चक्र सहस्त्रार चक्र (कमल चक्र )पर प्राण को उस चक्र पर केन्द्रित कर अनन्त का द्वार हमारे लिए खोल देता है .
भक्ति योग भी ईष्ट के ध्यान से आरम्भ हो कर अंततः समाधि पर ही जाता है .
अब प्रश्न ये है की ये अंतिम अवस्था समाधी क्या है ?
समाधी
हमारे मष्तिस्क में प्रति सकेंड लगभग ३ विचार तरंग प्रकति के माध्यम से आते है पर उन में से कुछ ही हमारी वृत्ति के अनुसार हमारी अन्तः प्रकति से संयोग कर के विचार तरंग में प्रकट हो जाते है .
ये ठीक ऐसा है जैसे की रेडियो का रिसीवर जिस आवृत्ति पर सेट किया गया हो उसी आवृत्ति की तरंगे ग्रहण करता है .
विचार आने की प्रक्रिया पर अपना मत मैं अपने पिछले लेख में रख चुका हू. वास्तव में हम विचारो का एक समुच्चय है .जिस के पास जैसे विचारो का संकलन है उन का व्यक्तित्व भी वैसा ही है .
ईश्वरत्व की प्राप्ति के लिए 'राज योग' में ८ अंग है जो क्रमशः यम ,नियम . आहार , प्रत्याहार ,आसन , ध्यान , योग , समाधि है . यहाँ पर अंतिम अवस्था समाधि है .
राज योग कुंडली जाग्रत कर देता है . मूलाधार चक्र से सुरु हुआ सफ़र जो योग से आरम्भ होता है अन्तिम चक्र सहस्त्रार चक्र (कमल चक्र )पर प्राण को उस चक्र पर केन्द्रित कर अनन्त का द्वार हमारे लिए खोल देता है .
भक्ति योग भी ईष्ट के ध्यान से आरम्भ हो कर अंततः समाधि पर ही जाता है .
अब प्रश्न ये है की ये अंतिम अवस्था समाधी क्या है ?
समाधी
हमारे मष्तिस्क में प्रति सकेंड लगभग ३ विचार तरंग प्रकति के माध्यम से आते है पर उन में से कुछ ही हमारी वृत्ति के अनुसार हमारी अन्तः प्रकति से संयोग कर के विचार तरंग में प्रकट हो जाते है .
ये ठीक ऐसा है जैसे की रेडियो का रिसीवर जिस आवृत्ति पर सेट किया गया हो उसी आवृत्ति की तरंगे ग्रहण करता है .
इन विचारो के आने के क्रम में जो समयान्तराल होता है वह विचार शून्य होता है यही वह समय है जब आत्मा अपने मूल स्वरुप के अत्यंत निकट होती है.
अर्थात समय से परे
समय घटनाओ के सापेछ होता है और विचार शून्य की अवस्था हमें समय से परे कर देती है .यही समाधी है .इसी लिए कभी कभी तो साधक कई दिनों तक भी समाधी में रह लेता है और समय का उसे पता नही चलता है .
समय से परे ही तो ईश्वर है .और समाधी हमें वह अनुभव देती है .
सच मानिये इस दुनिया का सवसे कठिन कार्य जो हमारी सीमा से अन्दर है विचार शून्य होना ही है .यदि आप सोचते है की मैं कुछ नही विचार करूँगा तो यह भी एक विचार है.
आंख बंद कर किसी पर ध्यान लगाना भी विचार है .
यदि आप सोचते है की आप सोते में विचार शून्य है तो भी आप गलत है .क्यों की उस वक्ते हमारा मष्तिस्क हमारी अतृप्त इच्छाओ को जो हमारे अचेतन मन में है , सपने के रूप में तृप्त कर वह गांठ खोलने का कार्य करता है .शायद इसी लिए कहते है जो मांगो वो ईश्वर देता है ,
इस अवस्था में आने का अष्टांग योग ( राज योग ) के अलग एक और मार्ग है जो देखने में बहुत सरल है पर अभ्यास करने पर ये भ्रम टूट जाता है .
इस का नाम है साक्षी भाव
Sunday, October 10, 2010
मनुष्य और संगणक (computer)- समानताए
मनुष्य और संगणक में अनेक समानताए है . यदि इन में अंतर करने को कहा जाये तो पहला जवाब होता है की संगणक निर्देशों पर कार्य करता है पर मनुष्य अपनी इच्छा से .आईये इन की समानताओ के कुछ बिन्दुओ पर विचार करते है.
(१) मनुष्य और संगणक दोनों ही निर्देशों पर कार्य करते है
.मनुष्य विचारो का एक समुच्चय (संगठन ) है .
वास्तव में मनुष्य विचारो का संगठन है .वो व्यक्ति कैसा है ये उस के समुच्चय में उपस्थित विचार ही निर्धारित करते है . पहले विचार आते है फिर वो मनुष्य के द्वारा कर्म के रूप में प्रकट हो जाते है .और ये कर्म ही उस की गति और व्यक्तित्व के लिए उत्तरदाई है .
अर्थात
कर्म का बीज विचार है .
अब प्रश्न ये उठता है की विचार कहा से आते है .
विचार प्रकति के द्वारा प्रेषित होते है .
हम जो भी देखते और सुनते है या अपनी इंद्रियों से ग्रहण करते है मष्तिष्क में सूछ्म तरंग के रूप में विचार आता है और हम जो भी इन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण कर करते है वो सब प्रकति (माया ) के अन्दर ही है .
अर्थात प्रकति ही हमें विचार करवाती है और हम कर्म के लिए प्रेरित हो कर कर्म करते है .
उद्धहरण - यदि मेरे सामने स्वादिष्ट व्यंजन रक्खे हो तो उन को देख कर यदि भूख लगी होगी तो उन्हें खाने की इच्छा अन्यथा अनिक्छा होगी .
अर्थात
वाह्य प्रकति द्वारा प्रेषित विछोभ (तरंग ) हमारी अन्तः प्रकति से संयोग कर के विचार उत्पन्न करती है .अतः
मनुष्य प्रकति के द्वारा संचालित है
(२) जिस प्रकार संगणक में हार्डवेअर और साफ्टवेअर है ठीक यही व्यवस्था मनुष्य में भी है
संगणक में जिस को हम छू सके वह हार्डवेअर और जिसे न छू सके वो साफ्टवेअर कहलाता है .
मनुष्य के स्थूल शरीर को हम हार्डवेअर और जीव , मन, बुद्धि को साफ्टवेअर मान सकते है .
(3) संगणक विद्धुत ऊर्जा से चलता है और मनुष्य की वास्तविक ऊर्जा प्राण द्वारा उत्पन्न सूछ्म विद्धुत ऊर्जा है .
(४) दोनों में ही स्मृति कोष है .
संगणक में दो प्रकार की मेमोरी होती है
(अ) रीड ओनली मेमोरी ( अस्थाई )
(ब) रेंडम एक्सिस मेमोरी (स्थाई )
मनुष्य में भी इसी प्रकार की स्मृति है . दिन भर हम जो भी करते है उस का अधिकांश भाग हमें याद नही रहता पर कुछ चीजे हमारी स्मृति कोष में recall करने पर तुरंत ही याद आ जाती है .अर्थात हम अपनी यादो को संगणक की स्थाई मेमोरी से तुलना कर सकते है .
(५) संगणक की तरह हमारे मष्तिस्क में भी फोल्डर और एक जैसे फोल्डर्स को संगठित करती हुई फाईल्स होती हैं .
ये बात शायद आप को अजीब लगे पर सत्य है .आईये देखते है कैसे ?
.दरसल सूचनाए एक तरंग के रूप में एक विशिष्ट जगह पर संचित हो जाती है. ये एक जैसी तरंगे एक पोटली जिसे ज्ञान कोष (फोल्डर ) कहते है संचित हो जाती है .
जान हम कोए नई चीज देखते है तो पिछले सारे फोल्डर से तुलना की जाती है जब वांछित सूचना नही मिलती है तो एक नया फोल्डर उस सूचना को संचित कर लेता है और भविष्य में यही फोल्डर जानकारी उपलव्ध कराता है .
भ्रम की स्तिथि तब उत्त्पन्न होती है जब हम किसी सूचना के लिए गलत ज्ञानकोष या उसी ज्ञानकोष का गलत फोल्डर गलती से आ जाता है .
(१) मनुष्य और संगणक दोनों ही निर्देशों पर कार्य करते है
.मनुष्य विचारो का एक समुच्चय (संगठन ) है .
वास्तव में मनुष्य विचारो का संगठन है .वो व्यक्ति कैसा है ये उस के समुच्चय में उपस्थित विचार ही निर्धारित करते है . पहले विचार आते है फिर वो मनुष्य के द्वारा कर्म के रूप में प्रकट हो जाते है .और ये कर्म ही उस की गति और व्यक्तित्व के लिए उत्तरदाई है .
अर्थात
कर्म का बीज विचार है .
अब प्रश्न ये उठता है की विचार कहा से आते है .
विचार प्रकति के द्वारा प्रेषित होते है .
हम जो भी देखते और सुनते है या अपनी इंद्रियों से ग्रहण करते है मष्तिष्क में सूछ्म तरंग के रूप में विचार आता है और हम जो भी इन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण कर करते है वो सब प्रकति (माया ) के अन्दर ही है .
अर्थात प्रकति ही हमें विचार करवाती है और हम कर्म के लिए प्रेरित हो कर कर्म करते है .
उद्धहरण - यदि मेरे सामने स्वादिष्ट व्यंजन रक्खे हो तो उन को देख कर यदि भूख लगी होगी तो उन्हें खाने की इच्छा अन्यथा अनिक्छा होगी .
अर्थात
वाह्य प्रकति द्वारा प्रेषित विछोभ (तरंग ) हमारी अन्तः प्रकति से संयोग कर के विचार उत्पन्न करती है .अतः
मनुष्य प्रकति के द्वारा संचालित है
(२) जिस प्रकार संगणक में हार्डवेअर और साफ्टवेअर है ठीक यही व्यवस्था मनुष्य में भी है
संगणक में जिस को हम छू सके वह हार्डवेअर और जिसे न छू सके वो साफ्टवेअर कहलाता है .
मनुष्य के स्थूल शरीर को हम हार्डवेअर और जीव , मन, बुद्धि को साफ्टवेअर मान सकते है .
(3) संगणक विद्धुत ऊर्जा से चलता है और मनुष्य की वास्तविक ऊर्जा प्राण द्वारा उत्पन्न सूछ्म विद्धुत ऊर्जा है .
(४) दोनों में ही स्मृति कोष है .
संगणक में दो प्रकार की मेमोरी होती है
(अ) रीड ओनली मेमोरी ( अस्थाई )
(ब) रेंडम एक्सिस मेमोरी (स्थाई )
मनुष्य में भी इसी प्रकार की स्मृति है . दिन भर हम जो भी करते है उस का अधिकांश भाग हमें याद नही रहता पर कुछ चीजे हमारी स्मृति कोष में recall करने पर तुरंत ही याद आ जाती है .अर्थात हम अपनी यादो को संगणक की स्थाई मेमोरी से तुलना कर सकते है .
(५) संगणक की तरह हमारे मष्तिस्क में भी फोल्डर और एक जैसे फोल्डर्स को संगठित करती हुई फाईल्स होती हैं .
ये बात शायद आप को अजीब लगे पर सत्य है .आईये देखते है कैसे ?
.दरसल सूचनाए एक तरंग के रूप में एक विशिष्ट जगह पर संचित हो जाती है. ये एक जैसी तरंगे एक पोटली जिसे ज्ञान कोष (फोल्डर ) कहते है संचित हो जाती है .
जान हम कोए नई चीज देखते है तो पिछले सारे फोल्डर से तुलना की जाती है जब वांछित सूचना नही मिलती है तो एक नया फोल्डर उस सूचना को संचित कर लेता है और भविष्य में यही फोल्डर जानकारी उपलव्ध कराता है .
भ्रम की स्तिथि तब उत्त्पन्न होती है जब हम किसी सूचना के लिए गलत ज्ञानकोष या उसी ज्ञानकोष का गलत फोल्डर गलती से आ जाता है .
Sunday, October 3, 2010
आत्मा और परमात्मा
आत्मा और परमात्मा में अंतर जानने से पहले हम उन के मूल स्वरुप को देखे और प्रकति क्या है ये देखे
परमात्मा
परमात्मा की धारणा के बारे में मैंने अपनी पिछली पोस्ट में बताया था . जो निम्न है
(१) इश्वर अज्ञात है.
अगर हम कोई भी चीज जानते है तो उस का आकार निर्धारित हो जाता है .जिसका आकार है वो न तो निराकार है और न ही अनन्त .
(२) ईश्वर एक है अर्थात निर्विकल्प है .
इस श्रष्टि का निर्माण केवल एक ही चीज करती है पर अपने दो अलग -अलग रूपों में
शिव (प्रदार्थ ) और शक्ति (ऊर्जा )
आईन्सटीन का सूत्र इस की पुष्टि करता है
(३)ईश्वर निर्गुण है
जो न न्याय करता है और न ही किसी को दंड देता है .वो कोई भी कर्म नही करता है
(४) जो निर्गुण तो है पर उस में ज्ञान है
यदि उस में ज्ञान शक्ति न होती तो वो इच्छा ही न करता की मैं एक से अनेक हो जाऊ और हम अपने मूल स्वरुप पाने के लिए प्रयास न कर रहे होते .
आत्मा
बहुत से लोग आत्मा और जीव में अंतर नही जानते और जीव को हो आत्मा समझते है यही कारण है की वे आत्मा को अनन्त और अजन्मा नही मानते है .
परमात्मा जी ने इच्छा की मैं एक से अनेक होजाऊ .और उन्हों आकाश (तत्व )बनाया .यह तत्व ईश्वर के सबसे निकटवर्ती है .इसी लिए जब यह तत्व शरीर में चल रहा हो तो ध्यान और योग अधिक फलदाई होता है .
फिर उन्हों ने वायु तत्व बनाया .
वायु की घर्षण से अग्नि (तत्व ) प्रकट हुई .
अग्नि से जल तत्व आया . इस बात को हम वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा समझ सकते है .
एक बीकर में हाईड्रोजन ले और दूसरे बीकर में आक्सीजन दोनों को एक नली से जोड़ कर जैसे ही स्पार्क करेंगे हईड्रोजन के दो परमाणु और आक्सीजन का एक परमाणु मिल कर जल का निर्माण कर देते है .
सब से बाद में प्रथ्वी तत्व का निर्माण किया .
इन तत्वों से श्रष्टि निर्माण करने के बाद भी जो कुछ भी था सब निर्जीव था .अर्थात इतना सब करने के बाद भी वह अकेला ही था .
फिर उस ने अपने को अंश में विभाजित किया और पाच तत्वों से सूछ्म देह (प्रदार्थ ) बना कर प्रदार्थ से सैयोग किया .इस के बाद इस सूछ्म प्रदार्थ ने स्थूल प्रदार्थ से सैयोग कर के जीवन और म्रत्यु चक्र की सुरुआत की .
वह अंश आत्मा के नाम से और वह सुछम देह जीव के नाम से जानी जाती है .
अतः
(१) जिस पर दया ,छमा प्रेम ,घ्रणा आदि गुण प्रतिबिंबित होते है वह आत्मा है .
(२)जो बुद्धि और मन नही है पर उन को संचालित करती है
(३) जो ज्ञान स्वरुप है
(४)जिस में ईश्वर के सारे गुण है .क्यों की वह ईश्वर का अंश है
राम और कृष्ण की पूजा क्यों ?
वैसे पिछली पोस्ट में मैं इस की चर्चा कर के अपना द्रष्टिकोण रख चुका हू पर मैं अपनी बात सरल शब्दों में कहना चाहूँगा .
राम कृष्ण की पूजा का ये अर्थ कदापि नही है की वो प्रकट हो कर हमें आशीर्वाद देंगे और हम तर जायेंगे .
'अहम् ब्रहस्मी ' का बोध ही ईश्वरत्व की प्राप्ति है .इस का बोध होने के बाद आगे का रास्ता तय करने के लिए किसी की जरुरत नही होती .ये आगे का रास्ता तय करते हुए अपने से कम चेतना स्तर को ईश्वरत्व का बोध करा देते है (पिछली पोस्ट देखे )
जितने भी है या कभी हुए उन सब में मैं ही था .राम भी मैं ही था और कृष्ण भी मैं .इस पोस्ट का लेखक भी मैं हू आप के रूप में पाठक भी मैं ही हू .
हम सब जीव तो अलग अलग है पर हम सब की आत्मा एक ही है .
यदि हम अपने राम या कृष्ण रूप का ध्यान करेंगे तो हम अपने इसी रूप को प्राप्त हो जायेंगे
.
परमात्मा
परमात्मा की धारणा के बारे में मैंने अपनी पिछली पोस्ट में बताया था . जो निम्न है
(१) इश्वर अज्ञात है.
अगर हम कोई भी चीज जानते है तो उस का आकार निर्धारित हो जाता है .जिसका आकार है वो न तो निराकार है और न ही अनन्त .
(२) ईश्वर एक है अर्थात निर्विकल्प है .
इस श्रष्टि का निर्माण केवल एक ही चीज करती है पर अपने दो अलग -अलग रूपों में
शिव (प्रदार्थ ) और शक्ति (ऊर्जा )
आईन्सटीन का सूत्र इस की पुष्टि करता है
(३)ईश्वर निर्गुण है
जो न न्याय करता है और न ही किसी को दंड देता है .वो कोई भी कर्म नही करता है
(४) जो निर्गुण तो है पर उस में ज्ञान है
यदि उस में ज्ञान शक्ति न होती तो वो इच्छा ही न करता की मैं एक से अनेक हो जाऊ और हम अपने मूल स्वरुप पाने के लिए प्रयास न कर रहे होते .
आत्मा
बहुत से लोग आत्मा और जीव में अंतर नही जानते और जीव को हो आत्मा समझते है यही कारण है की वे आत्मा को अनन्त और अजन्मा नही मानते है .
परमात्मा जी ने इच्छा की मैं एक से अनेक होजाऊ .और उन्हों आकाश (तत्व )बनाया .यह तत्व ईश्वर के सबसे निकटवर्ती है .इसी लिए जब यह तत्व शरीर में चल रहा हो तो ध्यान और योग अधिक फलदाई होता है .
फिर उन्हों ने वायु तत्व बनाया .
वायु की घर्षण से अग्नि (तत्व ) प्रकट हुई .
अग्नि से जल तत्व आया . इस बात को हम वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा समझ सकते है .
एक बीकर में हाईड्रोजन ले और दूसरे बीकर में आक्सीजन दोनों को एक नली से जोड़ कर जैसे ही स्पार्क करेंगे हईड्रोजन के दो परमाणु और आक्सीजन का एक परमाणु मिल कर जल का निर्माण कर देते है .
सब से बाद में प्रथ्वी तत्व का निर्माण किया .
इन तत्वों से श्रष्टि निर्माण करने के बाद भी जो कुछ भी था सब निर्जीव था .अर्थात इतना सब करने के बाद भी वह अकेला ही था .
फिर उस ने अपने को अंश में विभाजित किया और पाच तत्वों से सूछ्म देह (प्रदार्थ ) बना कर प्रदार्थ से सैयोग किया .इस के बाद इस सूछ्म प्रदार्थ ने स्थूल प्रदार्थ से सैयोग कर के जीवन और म्रत्यु चक्र की सुरुआत की .
वह अंश आत्मा के नाम से और वह सुछम देह जीव के नाम से जानी जाती है .
अतः
(१) जिस पर दया ,छमा प्रेम ,घ्रणा आदि गुण प्रतिबिंबित होते है वह आत्मा है .
(२)जो बुद्धि और मन नही है पर उन को संचालित करती है
(३) जो ज्ञान स्वरुप है
(४)जिस में ईश्वर के सारे गुण है .क्यों की वह ईश्वर का अंश है
राम और कृष्ण की पूजा क्यों ?
वैसे पिछली पोस्ट में मैं इस की चर्चा कर के अपना द्रष्टिकोण रख चुका हू पर मैं अपनी बात सरल शब्दों में कहना चाहूँगा .
राम कृष्ण की पूजा का ये अर्थ कदापि नही है की वो प्रकट हो कर हमें आशीर्वाद देंगे और हम तर जायेंगे .
'अहम् ब्रहस्मी ' का बोध ही ईश्वरत्व की प्राप्ति है .इस का बोध होने के बाद आगे का रास्ता तय करने के लिए किसी की जरुरत नही होती .ये आगे का रास्ता तय करते हुए अपने से कम चेतना स्तर को ईश्वरत्व का बोध करा देते है (पिछली पोस्ट देखे )
जितने भी है या कभी हुए उन सब में मैं ही था .राम भी मैं ही था और कृष्ण भी मैं .इस पोस्ट का लेखक भी मैं हू आप के रूप में पाठक भी मैं ही हू .
हम सब जीव तो अलग अलग है पर हम सब की आत्मा एक ही है .
यदि हम अपने राम या कृष्ण रूप का ध्यान करेंगे तो हम अपने इसी रूप को प्राप्त हो जायेंगे
.
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