जब ब्रह्म निराकार है तो न तो वह किसी की सहायता कर सकता है और न ही किसी को दण्डित !
परमात्मा जी ने एक इच्छा की
'' मैं एक से अनेक हो जाऊ ''
बस फिर से विश्राम अवस्था में आ गए .१/४ से स्रष्टि का निर्माण हुआ और ३/४ विश्राम में ही रहा .
३/4 जिस में कोइ गुण ही नही ,वो कुछ भी नही करता .सारा प्रयास जो चेतना में है वही करते है अर्थात जिन में कम्पन है वही विश्रमावस्था में जाने (मोछ ) का प्रयास करते है .चेतना के स्तर अलग अलग होते है .
वैज्ञानिक द्रष्टि
सबसे छोटा कण परमाणु है !.वस्तु चाहे कोई भी हो चाहे वो लकड़ी हो या लोहा परमाणु का भौतिक गुण धर्म सामान होते है .बस एलेक्ट्रोन और प्रोटान की संख्या से उन में परिवर्तन हो जाता है .वो भी इतना विविध की के उन की कल्पना भी असंभव लगती है .
प्रत्येक परमाणु अपनी मध्य स्तिथि के दोनों ओर कम्पन करता है .अर्थात प्रत्येक परमाणु की अपनी आवृत्ति होती है .
हमारा सूछ्म शरीर तत्व विज्ञानं में ५ वायु और १० उपवायु से निर्मित माना गया है .
५ वायु आपान , उदान , व्यान, समान और प्राण है . जिसमे प्राण वायु कम्पन के लिए उत्तरदाई है .ध्यान ,योग के द्वारा जिसने जितना अपने प्राण के कम्पन का आयाम बड़ा लिया उस का इलेक्ट्रो मग्नेटिक फिल्ड उतना ही सक्तिसाली और विस्तृत हो जाता है और वो उतना ही प्रकति के रहस्यों को जनता जाता है .और जब प्राण के आयाम अनन्त हो जाते है वो वही अवस्था मोछ है .
जैन दर्शन
जैन दर्शन पूर्णतया स्पष्ट और निरीश्वर वादी है .यह सिर्फ आत्मा को मानता है ..इस के अनुसार मनुष्य कर्मो के आधार पर जन्म लेता है और कर्मो के आधार पर स्वयं ईश्वरत्व को प्राप्त हो सकता है .
अर्थात
कोई ईश्वर स्वर्ग के सिंघासन पर आसीन नही है और न ही कोई उस का साझीदार है जो सिफारिश कर के स्वर्ग का रास्ता दिखाए .क्यों की न तो कोई स्वर्ग है और न ही कोई नरक ,जो भी है यही है क्यों की कार्य -कारण श्रंखला के कारण प्रकति स्वचालित है और कर्म के आधार पर फल मिलता है .
वे झूठे है जिन्होंने ईश्वर को जानने का दावा किया .(पिछली पोस्ट देखे ).
जो निर्गुण है उस की प्रशंशा करो या निंदा उस से कुछ भी घटित नही होने वाला
जो चेतना के स्तर पर हमसे श्रेष्ठ है निसंदेह उन के पास ज्ञान है जो वो हमें दे कर हमारी आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रसस्त कर सकते है .एक समय के बाद जब ''अहम् ब्रह्स्मी '' का बोध हो जायेगा तो फिर किसी की सहायता की जरुरत नही रह जाती .आगे का मार्ग वे स्वयं तय कर लेते है और दूसरो को ईश्वरत्व का बोध कराते है .वे जो कहते है वही ग्रन्थ बन जाते है. वही सत्य होता है .
जो ये कहते है की ईश्वर की मृत्यु नही होती तो राम और कृष्ण क्यों मरे .तो वे ये जान ले .मैं ही ईश्वर हू ऐसा जानने वाले की मृत्यु नही होती वे तो पहले अप्रकट थे अपनी इच्छा से प्रकट हुए और सन्देश देते हुए फिर अनन्त ने विलीन हो गए
क्यों की वो एक ही था जो एक से अनेक हो गया .तो सब में एक ही है बस वुद्धि रूपी माया हमें अपने अस्तित्व का अहसास कराती है .
राम ,कृष्ण की पूजा से हम अपने उसी रूप को प्राप्त हो जायेंगे और फिर हमें आगे का रास्ता स्वयं तय कर लेंगे .भगवान श्री कृष्ण कहते है गीता में
.
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्॥७- २४॥
मुझ अव्यक्त (अदृश्य) को यह अवतार लेने पर, बुद्धिहीन लोग देहधारी मानते हैं। मेरे परम
भाव को अर्थात मुझे नहीं जानते जो की अव्यय (विकार हीन) और परम उत्तम है।
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्॥७- २५॥
अपनी योग माया से ढका मैं सबको नहीं दिखता हूँ। इस संसार में मूर्ख मुझ अजन्मा और विकार हीन
को नहीं जानते।
गणितीय द्रष्टि से
गणित से सिद्धात भी प्राकतिक नियमो का पूर्णतया पालन करते है .
आईये अनन्त श्रेणी के एक प्रश्न देखे
प्रश्न - √{(√6+(√6+(√6+(√6+ ─ ─∞} का मान ज्ञात करे ?
हल- माना की
X=√(6+x ) .
ध्यान से देखिये यहाँ पर दोनों पक्ष बराबर नही है .फिर भी बराबर का निशान दोनों पक्ष बराबर दिखा रहा है .यहाँ पर अनन्त श्रेणी में से एक पद छोड़ दिया गया है .इस का तर्क ये है की अनन्त राशी में से एक बूंद निकालने पर राशी पर प्रभाव नगण्य होता है .
अब दोनों पक्ष का वर्ग करने पर द्वि घात समीकरण बनेगा जिस को हल कर ने पर x का मान 3 आएगा .
सम्पूर्ण राशी का मान निकलना तब तक संभव नही है जब तक की हम एक पद को आधार न बनाये .
अर्थात अनन्त को प्राप्त करने के लिए हमें एक केंद्र बिंदु चाहिए जो हमें उस तक पंहुचा सके .वर्ना अनन्त को अनन्त काल तक खोजिये . .
ये बिंदु हमारा चेतन बिंदु है जिस को हम आधार मान कर अपने चेतना का स्तर उठाते जाते है .
क्या पूजने योग्य है ?????
सनातन धर्म में किसी की भी पूजा से पहले 51 या 21 बार परिक्रमा करते है .ताकि भली भाति यह सुनिश्चित हो जाये की वह वस्तु वास्तव में पूजने योग्य है या नही . उस के बाद ही पूजा की जाती है .हमें किसी की भी पूजा करने से पहले यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए की वह हम से चेतना के स्तर पर श्रेष्ठ है अथवा नही . क्यों की हम अपने जिस रूप की पूजा करेंगे उसी रूप को प्राप्त होंगे .क्यों की प्रकति का अटल नियम है की यदि पूर्व की ओर जाओगे तो पूर्व ही पहुचोगे पश्चिम नही .
10 comments:
अभिषेक जी अपने अच्छा पोस्ट लिखा है ईश्वर क़ा वर्णन वैज्ञानिक तरीके से किया हमें इस्लाम से कुछ सीखने की आवस्यकता नहीं है शिव पूर्ण ब्रम्हा है --हममे तो ये क्षमता नहीं है की निराकार को जन सके इस नाते हम तो साकार क़े ही उपासक है
धन्यवाद
अति उत्तम post|
बार बार पढने योग्य।
abhishek ji I need your mail id, my id is robeendar@gmail.com
रविन्द्र जी ,मैंने आप को अपना मेल एड्रेस भेज दिया है .आप मुझे मेल भी कर सकते है
Hi Abhishek,
Great post !...Well done !
परमात्मा.आत्मा,प्रकृति तीनों से मिलकर सृष्टि चलती है.आत्मा परमात्मा का अंश नहीं है बल्कि सखा है.जिस प्रकार पानी एक बूँद हो या सागर में शीतल ही रहेगा.अग्नि एक चिंगारी हो या धधकती ज्वाला दग्ध ही करेगी.आत्मा यदि परमात्मा का अंश होती तो सत चित आन्नद ही होती.परमात्मा नस और नाडी के बंधन में नहीं बंधता अथार्त अवतार नहीं लेता.राम और कृष्ण के त्याग और राष्ट्र के लिए की सेवा को अनुकरणीय बनाना चाहिए पूजनीय नहीं.पूजनीय बना कर हम पालायन करते हैं और स्वयं कर्तव्य का पालन नहीं करना चाहते.
वैसे पोस्ट में आपने कड़ी मेहनत की है .
विमल जी मैं लिखने से पहले कोई तैयारी नही करता हू .बस जो विचार आते है उस वक्त उन को कलमबद्ध कर देता हू .
आप की बात का जवाब मेरी अगली पोस्ट होगी
कहते हैं कि महाभारत धर्म युद्ध के बाद राजसूर्य यज्ञ सम्पन्न करके पांचों पांडव भाई महानिर्वाण प्राप्त करने को अपनी जीवन यात्रा पूरी करते हुए मोक्ष के लिये हरिद्वार तीर्थ आये। गंगा जी के तट पर ‘हर की पैड़ी‘ के ब्रह्राकुण्ड मे स्नान के पश्चात् वे पर्वतराज हिमालय की सुरम्य कन्दराओं में चढ़ गये ताकि मानव जीवन की एकमात्र चिरप्रतीक्षित अभिलाषा पूरी हो और उन्हे किसी प्रकार मोक्ष मिल जाये।
हरिद्वार तीर्थ के ब्रह्राकुण्ड पर मोक्ष-प्राप्ती का स्नान वीर पांडवों का अनन्त जीवन के कैवल्य मार्ग तक पहुंचा पाया अथवा नहीं इसके भेद तो परमेश्वर ही जानता है-तो भी श्रीमद् भागवत का यह कथन चेतावनी सहित कितना सत्य कहता है; ‘‘मानुषं लोकं मुक्तीद्वारम्‘‘ अर्थात यही मनुष्य योनी हमारे मोक्ष का द्वार है।
मोक्षः कितना आवष्यक, कैसा दुर्लभ !
मोक्ष की वास्तविक प्राप्ती, मानव जीवन की सबसे बड़ी समस्या तथा एकमात्र आवश्यकता है। विवके चूड़ामणि में इस विषय पर प्रकाष डालते हुए कहा गया है कि,‘‘सर्वजीवों में मानव जन्म दुर्लभ है, उस पर भी पुरुष का जन्म। ब्राम्हाण योनी का जन्म तो दुश्प्राय है तथा इसमें दुर्लभ उसका जो वैदिक धर्म में संलग्न हो। इन सबसे भी दुर्लभ वह जन्म है जिसको ब्रम्हा परमंेश्वर तथा पाप तथा तमोगुण के भेद पहिचान कर मोक्ष-प्राप्ती का मार्ग मिल गया हो।’’ मोक्ष-प्राप्ती की दुर्लभता के विषय मे एक बड़ी रोचक कथा है। कोई एक जन मुक्ती का सहज मार्ग खोजते हुए आदि शंकराचार्य के पास गया। गुरु ने कहा ‘‘जिसे मोक्ष के लिये परमेश्वर मे एकत्व प्राप्त करना है; वह निश्चय ही एक ऐसे मनुष्य के समान धीरजवन्त हो जो महासमुद्र तट पर बैठकर भूमी में एक गड्ढ़ा खोदे। फिर कुशा के एक तिनके द्वारा समुद्र के जल की बंूदों को उठा कर अपने खोदे हुए गड्ढे मे टपकाता रहे। शनैः शनैः जब वह मनुष्य सागर की सम्पूर्ण जलराषी इस भांति उस गड्ढे में भर लेगा, तभी उसे मोक्ष मिल जायेगा।’’
मोक्ष की खोज यात्रा और प्राप्ती
आर्य ऋषियों-सन्तों-तपस्वियों की सारी पीढ़ियां मोक्ष की खोजी बनी रहीं। वेदों से आरम्भ करके वे उपनिषदों तथा अरण्यकों से होते हुऐ पुराणों और सगुण-निर्गुण भक्ती-मार्ग तक मोक्ष-प्राप्ती की निश्चल और सच्ची आत्मिक प्यास को लिये बढ़ते रहे। क्या कहीं वास्तविक मोक्ष की सुलभता दृष्टिगोचर होती है ? पाप-बन्ध मे जकड़ी मानवता से सनातन परमेश्वर का साक्षात्कार जैसे आंख-मिचौली कर रहा है;
खोजयात्रा निरन्तर चल रही। लेकिन कब तक ? कब तक ?......... ?
ऐसी तिमिरग्रस्त स्थिति में भी युगान्तर पूर्व विस्तीर्ण आकाष के पूर्वीय क्षितिज पर एक रजत रेखा का दर्शन होता है। जिसकी प्रतीक्षा प्रकृति एंव प्राणीमात्र को थी। वैदिक ग्रन्थों का उपास्य ‘वाग् वै ब्रम्हा’ अर्थात् वचन ही परमेश्वर है (बृहदोरण्यक उपनिषद् 1ः3,29, 4ः1,2 ), ‘शब्दाक्षरं परमब्रम्हा’ अर्थात् शब्द ही अविनाशी परमब्रम्हा है (ब्रम्हाबिन्दु उपनिषद 16), समस्त ब्रम्हांड की रचना करने तथा संचालित करने वाला परमप्रधान नायक (ऋगवेद 10ः125)पापग्रस्त मानव मात्र को त्राण देने निष्पाप देह मे धरा पर आ गया।प्रमुख हिन्दू पुराणों में से एक संस्कृत-लिखित भविष्यपुराण (सम्भावित रचनाकाल 7वीं शाताब्दी ईस्वी)के प्रतिसर्ग पर्व, भरत खंड में इस निश्कलंक देहधारी का स्पष्ट दर्शन वर्णित है, ईशमूर्तिह्न ‘दि प्राप्ता नित्यषुद्धा शिवकारी।31 पद
अर्थात ‘जिस परमेश्वर का दर्शन सनातन,पवित्र, कल्याणकारी एवं मोक्षदायी है, जो ह्रदय मे निवास करता है,
पुराण ने इस उद्धारकर्ता पूर्णावतार का वर्णन करते हुए उसे ‘पुरुश शुभम्’ (निश्पाप एवं परम पवित्र पुरुष )बलवान राजा गौरांग श्वेतवस्त्रम’(प्रभुता से युक्त राजा, निर्मल देहवाला, श्वेत परिधान धारण किये हुए )
ईश पुत्र (परमेश्वर का पुत्र ), ‘कुमारी गर्भ सम्भवम्’ (कुमारी के गर्भ से जन्मा )और ‘सत्यव्रत परायणम्’ (सत्य-मार्ग का प्रतिपालक ) बताया है।
स्नातन शब्द-ब्रम्हा तथा सृष्टीकर्ता, सर्वज्ञ, निष्पापदेही, सच्चिदानन्द त्रिएक पिता, महान कर्मयोगी, सिद्ध ब्रम्हचारी, अलौकिक सन्यासी, जगत का पाप वाही, यज्ञ पुरुष, अद्वैत तथा अनुपम प्रीति करने वाला।
अश्रद्धा परम पापं श्रद्धा पापमोचिनी महाभारत शांतिपर्व 264ः15-19 अर्थात ‘अविश्वासी होना महापाप है, लेकिन विश्वास पापों को मिटा देता है।’
पंडित धर्म प्रकाश शर्मा
गनाहेड़ा रोड, पो. पुष्कर तीर्थ
राजस्थान-305 022
@पंडित धर्म प्रकाश शर्मा जी ,
मार्ग दर्शन के लिए आप को प्रणाम ,
आशा है की आप आगे भी मार्ग दर्शन करते रहेंगे
उत्कृष्ट
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