विज्ञानं ने इस स्रष्टि को उर्जा और प्रदार्थ के रूप में विभाजित किया है . और यही भौतिक विज्ञानं का आधार भी है . इस आधुनिक विज्ञानं से हजारो वर्ष पहले इस दुनिया के पहले विज्ञानी हमारे ऋषियों ने इस की पूर्ण व्याख्या कर दी थी . उन्हों ने इसे जड़ और चेतन में विभक्त किया जिसे हम शिव और शक्ति भी कह सकते है .
श्रष्टि निर्माण की बड़ी ही सुन्दर व्याख्या ऋषियों ने की थी , वो एक था और उस ने इच्छा की मैं एक से अनेक हो जाऊ और इसी के साथ श्रष्टि का निर्माण हुआ .अर्थात वो एक ही था और वो एक से अनेक हो गया . पहले वह एक से दो अंशो जड़ और चेतन में विभक्त हुआ और फिर इन्ही से सम्पूर्ण श्रष्टि का निर्माण हुआ .
यदि हम और सूक्ष्म द्रष्टि से देखे तो जड़ तो है ही नहीं .जो भी हमें जड़ प्रतीत होता है वो तो बहुत सी उर्जा का ही समुच्य है .
भौतिक विज्ञानं भी यही कहता है
e /c =m c
वह एक ही है चाहे आप उसे कुछ भी कहे . मूर्ति पूजा का रहस्य भी इसी में है . इसी लिए देव स्थान जाग्रत होते है .और मूर्ति जो प्रदार्थ (जड) से बनी है उस के प्रभाव क्षेत्र में आते ही मन और विचार शुद्ध हो जाते है .
मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा सही या गलत
किसी मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा करना या उस को जाग्रत मानना श्रद्धा भाव से ही संभव है पर इस का ये अर्थ बिलकुल भी नहीं है की ये सिर्फ एक मान्यता या श्रद्धा है .इस का बड़ा ही ठोस वैज्ञानिक आधार है .
इस के लिए हमें पहले प्राण क्या है ये समझना होगा .
प्राण का अर्थ उस वायु से है जो हमारे शारीर में सपंदन या कम्पन के लिए उत्तरदाई है . सनातन विज्ञानं में हमारा शरीर ५ प्रकार की वायु और १० प्रकार की उप वायु से निर्मित माना गया है .जिस में से सिर्फ प्राण ही है जो सपंदन के लिए उत्तरदाई है . और इसी लिए ये जीवन का प्रतीक है .
यदि हम आधुनिक विज्ञानं को समझे तो उस के अनुसार प्रत्येक वस्तु परमाणु से बनी है .ये परमाणु अपनी माध्य स्तिथि के दोनों तरफ दोलन करते रहते है अर्थात प्रत्येक परमाणु की आवृत्ति होती है .इस प्रकार पत्येक परमाणु में प्राण है जो उस स्पंदन के लिए उत्तरदाई है .
आप चाहे उसे विज्ञानं की भाषा में उर्जा बोले पर सनातन विज्ञानं में उसे हम प्राण ही कहेंगे . अर्थात मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा में कुछ भी गलत नहीं .
अब प्रश्न ये है की क्या किसी भी देव मूर्ति के प्राण का स्तर इतना उठ जाता है की वो याचको की मनोकामना पूर्ण कर सके .
आखिर मनोकामना कैसे पूर्ण होती है इस पर मैं अपने विचार अगले लेख में रक्खूँगा .आप के विचार का भी स्वागत है
यदि हम और सूक्ष्म द्रष्टि से देखे तो जड़ तो है ही नहीं .जो भी हमें जड़ प्रतीत होता है वो तो बहुत सी उर्जा का ही समुच्य है .
भौतिक विज्ञानं भी यही कहता है
e /c =m c
वह एक ही है चाहे आप उसे कुछ भी कहे . मूर्ति पूजा का रहस्य भी इसी में है . इसी लिए देव स्थान जाग्रत होते है .और मूर्ति जो प्रदार्थ (जड) से बनी है उस के प्रभाव क्षेत्र में आते ही मन और विचार शुद्ध हो जाते है .
मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा सही या गलत
किसी मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा करना या उस को जाग्रत मानना श्रद्धा भाव से ही संभव है पर इस का ये अर्थ बिलकुल भी नहीं है की ये सिर्फ एक मान्यता या श्रद्धा है .इस का बड़ा ही ठोस वैज्ञानिक आधार है .
इस के लिए हमें पहले प्राण क्या है ये समझना होगा .
प्राण का अर्थ उस वायु से है जो हमारे शारीर में सपंदन या कम्पन के लिए उत्तरदाई है . सनातन विज्ञानं में हमारा शरीर ५ प्रकार की वायु और १० प्रकार की उप वायु से निर्मित माना गया है .जिस में से सिर्फ प्राण ही है जो सपंदन के लिए उत्तरदाई है . और इसी लिए ये जीवन का प्रतीक है .
यदि हम आधुनिक विज्ञानं को समझे तो उस के अनुसार प्रत्येक वस्तु परमाणु से बनी है .ये परमाणु अपनी माध्य स्तिथि के दोनों तरफ दोलन करते रहते है अर्थात प्रत्येक परमाणु की आवृत्ति होती है .इस प्रकार पत्येक परमाणु में प्राण है जो उस स्पंदन के लिए उत्तरदाई है .
आप चाहे उसे विज्ञानं की भाषा में उर्जा बोले पर सनातन विज्ञानं में उसे हम प्राण ही कहेंगे . अर्थात मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा में कुछ भी गलत नहीं .
अब प्रश्न ये है की क्या किसी भी देव मूर्ति के प्राण का स्तर इतना उठ जाता है की वो याचको की मनोकामना पूर्ण कर सके .
आखिर मनोकामना कैसे पूर्ण होती है इस पर मैं अपने विचार अगले लेख में रक्खूँगा .आप के विचार का भी स्वागत है
5 comments:
@ "...प्रश्न ये है की क्या किसी भी देव मूर्ति के प्राण का स्तर इतना उठ जाता है की वो याचको की मनोकामना पूर्ण कर सके ."
इसके संकेत आपको उनके मृत राजा आदि के शरीर में स्थित आत्मा की भविष्य में सुधार/ भलाई हेतु, मिस्र में स्थित भौतिक चतुर्मुखी संरचना, (प्राचीनतम सभ्यता के निवास स्थान भारत के 'ब्रह्मा'?), 'पिरामिड' यानि 'पायर + एमिड' = 'बीच में अग्नि', अथवा हिन्दू मान्यतानुसार शरीर के बीच में तथाकथित आत्मा, से मिलेगा... और अनादि काल से चले आ रहे 'हिन्दू' मंदिरों में 'विमान' का जनता के हित में उपयोग (जो संकेत करता है प्राण प्रतिष्ठित मूर्तियों के माध्यम से उस स्वयंभू शक्ति (भूतनाथ शिव) का उपयोग भक्तों की साधारण स्तर पर स्थित आत्मा का स्तर उठाने के लिए, जैसे विमान यात्रियों को, पंचभूतों में से एक, 'आकाश' में, ऊपर ले जाता है...
किन्तु योगी यह भी कह गए कि क्यूंकि काल के प्रभाव से सतयुग से कलियुग तक आते आते मानव शरीर की पहुँच कलियुग में केवल अधिक से अधि २५% और कम से कम ०% के बीच ही रह जाती है...
सही कथन...वस्तुतः मन व आत्म की स्वीकृति ही पत्थर में भी प्राण प्रतिष्ठा कर देती है...
---मानो तो शंकर हैं कंकर हैं अन्यथा....
अभिषेक जी, हमारे पूर्वजों के विचार समझने से पहले प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह जानना आवश्यक माना गया है कि 'हम' वास्तव में कौन हैं!
गीता में यह साफ़ किया गया है 'माया' के कारण 'हम', मानव, (कृष्ण की 'माया' के कारण अनंत ब्रह्माण्ड के भौतिक रूपों के अतिरिक्त, पृथ्वी पर आधारित पशु-जगत में सर्वश्रेष्ठ) साकार दिखाई पड़ते हैं... यद्यपि वास्तव में 'हम' सब अमृत आत्माएं हैं (कृष्ण के विराट रूप, विष्णु यानि आरम्भ में पृथ्वी के केंद्र में संचित मूल शक्ति / देवताओं द्वारा चार चरणों में मंथन के उपरांत अमृत शिव यानि साधे चार अरब से अधिक अंतरिक्ष के शून्य में विद्यमान पृथ्वी, के प्रतिरूप अथवा प्रतिबिम्ब, जो शून्य यानि शुद्ध शक्ति से अनंत साकार तक प्रकृति की उत्पत्ति को दर्शाने का काम करते हैं... इस कारण विभिन्न स्तर पर होने से, जो आत्माएं निम्न स्तर पर प्रतीत होती हैं उन्हें प्रयास अधिक करना होगा मायाजाल को तोड़ अपने ही मूल को, 'परम सत्य', को जान मुक्ति पाने का...
बिल्कुल सही कहा/बताया है
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