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Sunday, January 30, 2011

वरदान, इच्छित प्राप्ति और भविष्यवाणी

हमारे ऋषि और महात्मा पहले जो वरदान या श्राप देते थे वो फलित होता था . ऐसा वे कैसे करते थे इस के बारे में काफी मंथन के बाद जो समझ में आया वो रख रहा हू . आप के विचार  का भी स्वागत है .
अगर विज्ञानं की द्रष्टि से देखा जाये तो हर परमाणु की अपनी आवृत्ति होती है . जब  कही से परमाणु को ऊर्जा मिल जाती है तो  उस की आवृत्ति बढ़ जाती है  जब तक की वह उस अतिरिक्त ऊर्जा को अपने पडोसी परमाणु  को नही दे देता .
  जिस  प्रकार परमाणु की आवृत्ति होती है उसी प्रकार प्राण की भी आवृत्ति होती है , जितनी उस की आवृत्ति होगी  उस का इलेक्ट्रो मेग्नेटिक फिल्ड उतना की शसक्त होगा. अर्थात आस पास के वातावरण में उतना ही उस का प्रभाव होगा .
कहने का तात्पर्य यह है की चेतना के स्तर होते है .  चेतना के स्तर पर ही निर्भर है उस का  प्रकति पर प्रभाव या प्रकति का उस के सापेक्ष होना .
आप  एक   वृत्त को देखिये . उस की परिधि पर  असंख्य बिंदु होते है . जैसे जैसे आप वृत्त के केंद्र की तरफ  जायेंगे उन बिन्दुओ के बीच की दुरी घटती जाएगी   . और वृत्त के केंद्र पर सिर्फ एक ही बिंदु होगा .
उपरोक्त उद्दहरण से  आप चेतना के स्तर   को  समझ सकते है . प्रकति में अनेक विभिन्नताए है पेड़  , पौधे , ग्रह उपग्रह  ,तारा  मंडल  आदि  आदि  .चेतना के इस स्तर पर असंख्य भिन्नताए है पर जैसे जैसे चेतना का स्तर उठता जाता है भिन्नताए समाप्त होती जाती है .और उस परम चेतना के बिंदु पर कोई  भिन्नता नही रहा जाती वो एक ही है वही है 
एकोहम  बहुस्यामि 
एक  से ही अनेक है  .
अब  आती है इच्छित और वरदान देने की बात .  यदि चेतना के स्तर अलग अलग है  तो आप  एक वृत्त के अन्दर असंख्य वृत्त की कल्पना कर सकते है  अर्थात एक वृत्त अपने अन्दर वृत्त  को पूरा धारण करता है परन्तु जिस वृत्त के अन्दर वह है उस का कुछ ही भाग जो उस में है जानता है.  ठीक इसी प्रकार चेतना भी है .
वरदान उच्च चेतना अपने से निम्न चेतना को अपनी सामर्थ्य के अनुसार दे सकती है . वो अपने से निम्न चेतना  को तो पूरी तरह समझ सकती है  पर अपने से उच्च चेतना को  पूरी तरह नही जान सकती . यही से गुरु की महिमा समझी जा सकती है . इसी लिए  गुरु को शिष्य और शिष्य को गुरु का चयन बड़ी ही सावधानी से करना चाहिए .
वरदान  या इच्छित की प्राप्ति का आशीर्वाद आप की चेतना पर है . क्यों की आप ही तो है देने वाले और लेने वाले भी ,आप अपने किस स्वरुप  पर है यही निर्धारित करता है 
अभी  मैंने कुछ दिन पहले एक सपना देखा . मैंने देखा की एक व्यक्ति से मैं तलवार के साथ लड़ रहा हू . मैं उस को हराना चाहता था पर वो हर बार मुझे तलवार से घायल कर देता है और हार नही रहा था . फिर मैंने सोचा की क्यों की ये एक सपना है और मैं ही ये पहले ही उस की जीत  निर्धारित कर चुका हू  तो यह नही हार सकता  और मेरी नीद तुरंत  ही खुल गयी .
मेरे अन्तः चेतन ने  ने अपनी ईच्क्षा से पहले ही सब निर्धारित कर दिया था और मेरा छुद्र मन  अपनी ईच्क्षा  के अनुसार  वांक्षित चाहता था . बस यही है वरदान और इच्छित की प्राप्ति का राज .
हम  अपने चेतना के स्तर   को  बढ़ा  कर अपनी इच्छा  जान सकते है जो हर चीज निर्धारित कर देती है 
यही  है भविष्यवाणी का राज 
अगले  लेख में हम चेतना का स्तर कैसे बढ़ा सकते है इस  पर चर्चा करेंगे   

 

35 comments:

डॉ. मोनिका शर्मा said...

बहुत सुंदर .... अगली पोस्ट का इंतजार है....

JC said...

'योगमाया' अथवा 'माया' के संदर्भ में, शायद इसे हम आत्माएं (जैसा गीता में भी कहा गया है) सब साकार को, पृथ्वी आदि पिंडों के केंद्र में उपस्थित गुरुत्वाकर्षण शक्ति समान, 'आत्मा' यानि शक्ति रूप में समझ सकते हैं,,, जो भूत काल में हुई शून्य से अनंत (भूतनाथ तक) की उत्पत्ति को दर्शाते उसके प्रतिबिम्ब, अथवा प्रतिरूप, समझे जा सकते हैं,,,जो प्रकृति में व्याप्त विविधता को भी दर्शाने में इस कारण सक्षम हैं - मानव शरीर में नौ ग्रहों के विभिन्न मात्राओं में उपलब्ध सार द्वारा,,,मूलाधार से सहस्रार तक अष्ट चक्र द्वारा प्रतिबिंबित,,, जो शनि के सार से बनी नर्वस सिस्टम द्वारा आपस में जुड़े भी हैं...केवल भूतनाथ शिव (रचयिता नादबिन्दू विष्णु समान) ही केवल सम्पूर्ण ज्ञान एवं शक्ति पाने में सक्षम,,,और अन्य पशु-रूप धारी शून्य से लगभग अनंत ज्ञान अर्जित करने में सक्षम - जो किसी भी व्यक्ति के सहस्रार चक्र यानि मस्तिष्क तक सूचना आठों चक्र से किसी क्षण पहुँच पाती है...

भविष्यवाणी का आधार इस कारण पहुचे हुवे योगियों आदि का अपने अजना चक्र में किसी भी व्यक्ति विशेष से सम्बंधित जानकारी वैसे ही प्राप्त करना जैसे हम रिकॉर्ड प्लेयर में किसि सी डी को आगे पीछे घुमा देख सकते हैं ('८० में गौहाटी में मुझे पहली बार मिलने वाले एक तांत्रिक ने दो सप्ताह पहले ही, उन दिनों दिल्ली से हमारे पहाड़ पर स्थित पुश्तैनी घर गए, हमारे पिताजी के बढे रक्तचाप के बारे में सूचना दी थी जिसकी पुष्टि भाई द्वारा भेजे तार से मुझे वहां मिली! उनके स्वास्थय में सुधार होते होते ४ माह लग गए)...

JC said...

यदि स्वप्न को, जो यद्यपि वर्तमान में हमारे नियंत्रण में नहीं होते और अनायास उत्पन्न होते प्रतीत होते हैं, आधार मान हम यह सोच सकें कि ये भी 'प्राकृतिक' हैं और अभ्यास से इन्हें नियंत्रण में करना शायद संभव रहा हो भूतकाल में, तो शायद अपने योगियों (शिव के 'पहुंचे हुए प्रतिबिम्बों') आदि के दृष्टिकोण को थोडा बेहतर जान सकते हैं...संभवतः जिसे हम जागृत अवस्था समझ रहे हो वो भी एक स्वप्न ही हो (भूतनाथ का अपने इतिहास की झलक देखना, जिसकी एक झलक हम अस्थायी जीव भी अपनी निद्रावस्था में भी देखते प्रतीत होते हैं)!!!...

ABHISHEK MISHRA said...

बेहद ज्ञानवर्धक जानकारी ,
मैं थोडा और आप के विचार जानना चाहूँगा भविष्यवाणी करने के बारे में
आप का बहुत बहुत आभार

केवल राम said...

मन की पिपासा तृप्त हुई यहाँ आकर आपका आभार ...अपना प्रयास जारी रखें ..हार्दिक शुभकामनायें

ABHISHEK MISHRA said...

@jc जी ,चेतना का स्तर बढ़ने पर तो स्वप्न पर भी नियंत्रण हो जाता है अतः सिर्फ स्वप्न के आधार पर भविष्यवाणी हर बार तो सही नही हो सकती है .
@केवल राम जी , आप का स्वागत है

JC said...

सर्वप्रथम किसी भी आत्मा के लिए ध्यान देने वाली हिन्दू मान्यता है परमात्मा के निराकार होने की, यानि एकमात्र शून्य काल और स्थान से सम्बंधित शक्ति रूप जो अजन्मा और अनंत है,,, और साकार रूप धारण करने के लिए भी सक्षम (जैसे वैज्ञानिक शक्ति को भी अनंत पाते हैं, किन्तु उसके विभिन्न रूप धारण करने की सम्भावना भी)...इस कारण यह मान्यता भी है कि श्रृष्टि की रचना शून्य काल में ही हो गयी होगी, और इस कारण समाप्त यानि ध्वंस भी शून्य काल में ही हो गयी होगी...

'वर्तमान' में यदि कोई घटना लगभग शून्य काल में घटती है तो हम पाते हैं (अथवा मानते हैं?) कि तकनीकी में प्रगति होने से हम उस घटना को उन्नत कंप्यूटर, केमरा आदि की सहायता से जितनी बार 'भूत' काल की घटना को 'भविष्य' में, कभी भी और कहीं भी, देखना चाहें तो टीवी पर देख सकते हैं...जबकि हम जानते हैं कि विज्ञान को अभी बहुत देर लगेगी सत्य को पाने में, किन्तु (परम सत्य) परमात्मा तो सदैव, अनादि काल से, सर्वगुण संपन्न है, जिस कारण उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं है,,,फिर क्या वो अनंत नेत्रों (पशु रुपी कंप्यूटर आदि) के माध्यम से अपना इतिहास नहीं देख सकता (शून्य से अनंत तक की यात्रा)?

अहसास की परतें - old said...

Nice one

Kindly visit http://ahsaskiparten-sameexa.blogspot.com/

JC said...

'मैं' कौन हूँ? जानने के लिए उदाहरण दिया जा सकता है आपकी अपनी तस्वीरों का जो आप के एल्बम में हैं, बचपन से ले कर आज तक खींची गईं - विभिन्न आयु, वेश-भूषा और स्थान आदि पर 'आपको' प्रदर्शित करती...अब यदि आपसे पूछा जाए कि इनमें से आप वास्तव में कौन से हो? तो आप सब तस्वीरों को इंगित करते कहेंगे ये भी मैं हूँ और वो भी मैं ही हूँ...किन्तु आप यह शायद अवश्य मानोगे कि आपकी मानसिक अवस्था अथवा विश्वास आदि एक सा न रहा हो हर काल में, उनमें बदलाव आये हों समय और स्थान आदि के साथ,,,संभव है यदि आप वर्तमान में जवान हो तो सोचें कि आप आज शायद अपनी चरम सीमा पर हो, आदि, आदि...और संभवतः यह भी मानें कि यद्यपि आपने बहुत कुछ सीखा है, ज्ञानोपार्जन किया है, किन्तु अभी भी आपको बहुत कुछ जानना शेष है...(गीता में लिखा है कि सब गलतियों का कारण अज्ञान है,,, और इस कारण परम सत्य तक पहुँचने के लिए सिद्धि प्राप्ति जोगियों का लक्ष्य रहा है, जिसके लिए आम आदमी को स्थित्प्रग्य, हर हाल में एक सा, रहने का उपदेश दिया गया)...

ABHISHEK MISHRA said...

आप से पूर्णतया सहमत ,
अभी मुझे बहुत कुछ जानना है .ईश्वर ज्ञानस्वरूप है और अनन्त है जितना भी जाना जाये कम है , मैं तो अज्ञानी हू और उस ज्ञानस्वरूप आनंद के सागर की एक बूंद (मेरी आत्मा )ही जान लू तो मैं धन्य हो जाऊ .

JC said...

जैसा मैंने भविष्य-वाणी पर पहले लिखा, मैंने तो अपने कुछेक असमी सहकर्मियों को कहा था किसी जड़ी-बूटी वालों को, यदि वो जानते हों तो, मेरी पत्नी के जोड़ों के दर्द (अम्ल बात) के लिए भेजने को...एक दिन एक मुस्लिम सज्जन ने मुझे बताया कि वो किसी को मेरे घर बिठा के आगये थे...तुरंत घर पहुंचा ही था कि वो सज्जन, मेरे चेहरे में उन्होंने क्या देखा या पढ़ा पता नहीं, मुझे देखते ही बोले कि मेरे परिवार में किसी का रक्त-चाप बढ़ा हुआ था...मैंने कहा मेरा ही होगा असम के आन्दोलन के कारण ,,,किन्तु उन्होंने फिर दोहराया 'परिवार के किसी सदस्य का'...फिर बात आई-गयी होगई, क्यूंकि हम ने दर्द के लिए तेल बनाने के लिए क्या सामग्री लगेगी उसकी चर्चा कर, सूची तैयार कर ली...अगले दिन जब तेल बना उन्होंने मुझे एक ताबीज़ बना के दिया और अपने झोले से एक छोटी सी हड्डी निकाल पानी से एक पत्थर पर घिस उसका पेस्ट मेरे दाहिने हाथ में लगाया तब ही मुझे उसके तांत्रिक होने का आभास हुआ...उन्होंने बातों बातों में मुझे बताया था कि कैसे वे एक दवा की कम्पनी में कलकत्ता में काम करते थे जहाँ वो देखते थे कि कैसे सर्प-विष ऊंची कीमत पर खरीदा जाता था,,,जिस कारण उन्हें भी विचार आया था अपने नौगाँव स्तिथ खाली पड़ी भूमि पर सांप पालने का, जिसके लिए, वो नौकरी छोड़, साधुओं के साथ हिमालय चले गए और विद्या ग्रहण कर अब विष बेचने के अतिरिक्त सांप काटे का इलाज करते थे पूर्वोत्तर में (साँपों को पकड़ने के साथ साथ)... उनसे मैंने साँपों के बारे में भी बहुत- कुछ जाना...

JC said...

मुझे तब आश्चर्य हुआ जब गौहाटी में बड़े भाई का तार मिला कि पिताजी को दिल का दौरा पड़ा था और वो दिल्ली से पहुँच गए थे,,,क्यूंकि बात हाल ही की थी मैं आश्चर्य में पड़ गया कैसे कोई हजारों किलोमीटर दूर से, मुझे भी पहली बार मिल, मेरे परिवार के किसी सदस्य के बढे रक्त-चाप का समाचार दे सकता है, जबकि स्वयं मेरे पिताजी ने मुझे बाद में बताया की उन्हें भी पता नहीं था...उन्होंने बताया कैसे जब वो बिस्तर पर लेटे थे तो उसी समय मेरा पत्र उन्हें मिला था जिसमें मैंने उन्हें कामाख्या मंदिर पहली बार जा प्रसाद भेजा था,,,,उन्होंने उसे लगभग बेहोशी की हालत में पढ़ा था और प्रसाद मुंह में रख आस पास खड़े रिश्तेदारों को कहा था कि वे अब नहीं मरेंगे क्यूंकि उन्हें माँ का प्रसाद मिल गया था!!! और इसे भाग्यवश कहें अथवा लीला का एक अंश, एक डॉक्टर जो ईराक-ईरान युद्ध के कारण स्वदेश लौट आया था उसने नयी नयी प्रैक्टिस उस इलाके मैं आरंभ की थी,,,वो मिल गया और उसके इलाज़ से उन्हें लाभ पहुंचा, और वो फिर दिल्ली लौट पाए थे ३-४ माह बाद...
(यद्यपि हमारे परिवार में व्रत कृष्ण जन्माष्टमी और शिवरात्री को रखे जाते थे, वो काली के भक्त भी हो गए थे शिमला में १९२५ से रहते हुए, कालीबाड़ी में अपने बंगाली सहकर्मियों के साथ जा एक दिन उनके साक्षात् दर्शन कर,,,और सन '४० में दिल्ली आने के बाद लगातार एक काली मंदिर अवश्य जाया करते थे, और हम बच्चों को भी कभी कभी ले जाते थे)...
मैं सन '८० फरवरी गौहाटी पहुँच गया था किन्तु जुलाई माह में ही पहली बार पत्नी के निरंतर दबाव डालने पर भी मैंने मंदिर जाने की ठानी थी, शनीवार की शाम निर्णय लिया रविवार सुबह जाने का...सुबह नींद खुली थी तो मूसलाधार वर्षा हो रही थी,,,इस कारण जब पहुंचे तो भीड़ नहीं होने से आराम से दर्शन हो गए... असम में अप्रैल से अक्तूबर माह वर्षा ऋतू मानी जाती है, और उस दौरान कभी कामख्या मंदिर में अम्बुवाची मेला लगता है, जब वहां सब तांत्रिक एकत्रित होते हैं,,,शायद पेयजल लिए बादलों का दक्षिण पश्चिम से उत्तरपूर्व प्रतिवर्ष खिंचे आते समान मान्यता वहाँ एक शक्ति के केंद्र की जो मंदिर द्वारा दर्शाया जाता आया है अनादिकाल से)...

JC said...

हम आज जानते हैं कि हिमालय की उत्पत्ति जम्बुद्वीप (वर्तमान 'भारत') के उत्तर में स्थित सागर के गर्भ से हुई और यह भी कि चन्द्रमा कि उत्पत्ति पृथ्वी से ही हुई, धरती के नीचे पिघला गर्म पत्थर हिमालय के नीचे सबसे निकट है, और हिमालयी क्षेत्र में भूमि कम्पन और चट्टान आदि फिसलने कि प्रतिक्रिया आम है,,, पुराण आदि मैं लिखी कहानियों से हम अनुमान लगा सकते हैं कि कैसे इसे सति की 'हवन कुंड' में जल मृत्यु, उसके मृत शरीर को शिव के कंधे में उठा तांडव नृत्य करना,,,और फिर उन्हीके एक स्वरूप, 'हिमालय-पुत्री' पार्वती, से विवाह आदि द्वारा दर्शाया गया...दक्षिण-पश्चिम मॉनसून हवाओं का पञ्च-तत्वों के माध्यम से प्रति वर्ष उत्तर-पूर्वी हिमालय क्षेत्र में पहुँच अनंत जल-चक्र के कारण ही भारत 'सोने की चिड़िया' कहलाया गया है और विदेशियों को आकर्षित करता आया है,,,और इस पृष्ठभूमि में कामाख्या माँ, यानि शक्ति रुपी जीव जो पूज्य है क्यूंकि वो ही सक्षम है मानव की हर इच्छा पूर्ती हेतु अनादिकाल से अनंत तक, शिव की अर्धांगिनी सती (शक्ति?) जिसकी जननेंद्रिय मानी जाती है वहां गिरी थी जब विष्णु ने अपने सुदर्शन-चक्र से सति के टुकड़े कर शिव के क्रोध का कारण समाप्त कर उन्हें शांत कर दिया था और सब देवताओं (सौर मंडल के सदस्यों?) को प्रसन्न किया...और जल-चक्र समान काल-चक्र निरंतर चलता आ रहा है (और चक्की के दो पाटों के बीच जैसे चने के साथ घुन भी पिस रहे हैं?)...

JC said...

उत्तर भारत से जा, असम में अस्सी के दशक में पहुँच, हमें एक बात जो भिन्न लगी वो था आम आदमी का तंत्र विद्या में विश्वास - हमको सुनाई पड़ता था मित्रों से कि कैसे किसी का मकान खाली न होता हो, कोई घर में अस्वस्थ हो, आदि, तो वे अधिकतर तांत्रिक को बुलाते थे,,,उसी सांप वाले से कई बार फिर मुलाकात हुई जब वो कोई सांप पकड़ हमारे घर के पास होता था (जिसके निकट पहाड़ी क्षेत्र था जहाँ बरसात में सांप आम तौर पर निकल आते थे अपने बिलों से),,,इस प्रकार मुझे कॉबरा, क्रेत, आदि कुछेक सांप, विषधर, देखने और उनके बारे में जानने का अवसर प्राप्त हुआ, और मन में यह भी विचार आया कि शिव भी तो विषधर ही माने जाते हैं! क्यूंकि 'वासुकी नाग को मंथने की रस्सी बना सागर मंथन से उत्पन्न' तथाकथित हलाहल अथव कालकूट विष को (अमृत प्रदायिनी पार्वती की कृपा से) अपने गले में धारण करने में केवल शिव, नीलकंठ, ही सक्षम थे और जिस कारण चार चरण में 'क्षीरसागर मंथन' संभव हुआ और सब देवताओं (जो ४ अरब वर्षों से अंतरिक्ष में विद्यमान हैं, सौर-मंडल के सदस्यों?) को भी अमरत्व प्राप्त होना संभव हुआ,,,और जिनके सार से ही मानव शरीर यद्यपि बना माना गया, किन्तु वो अस्थायी जाना जाता है, आग की एक चिंगारी समान, जिस कारण योगियों ने केवल शक्ति रूप आत्मा को ही अनंत माना, शरीर में अनंत काल-चक्र में कुछ निर्धारित काल के ही लिए विभिन्न रूपों में कैदी समान निवास कर (इस कारण कृष्ण को मथुरा के कारागार में उत्पन्न होते दर्शाया जाता है?)
एक शुभचिंतक ने हमें फिर मिलाया एक व्यक्ति से जिसके अनुसार उसका जन्म और उनके तात्कालिक प्रसिद्द तांत्रिक दादाजी की मृत्यु एक ही समय एक ही घर में हुई थी...उन्होंने भी जन्म-कुंडली आदि बना गणना कर दो नाग पहनने को बोला, और हमने किया भी, किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ! उन्हीं शुभचिंतक ने फिर एक ऐसे बाबा से मिलवाया जो उनके अनुसार मरे हुए को भी जिन्दा कर सकते थे (जैसा मैंने पहले कहा गौहाटी में अम्बुवाची मेले में तांत्रिक आते हैं, और वो काशी से आये थे)! उन्होंने किन्तु बताया कि वो औषधि स्वयं बनायेंगे, जिस कारण मैंने उन्हें कहा कि फिर में तक चिकित्सकों को ही दिखाऊंगा क्यूंकि मैं उनके पास उनकी दैविक शक्ति है जानकार आया था...

JC said...

जिसके दादा तथाकथित प्रसिद्द तांत्रिक थे, उसने मुझे बताया कि कैसे वो ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे बसे सदिया शहर में रहते थे,,, किन्तु कैसे ब्रह्मपुत्र की, १९५० में स्वतंत्रता दिवस की रात्री, बाढ़ के कारण पूरा शहर ही तबाह हो गया था,,, किन्तु वो वहाँ से बच निकले और पेट की खातिर मुंबई पहुँच फिल्म स्टूडियो आदि में भी काम कर वापिस असम आ ज्योतिष सीखे और तांत्रिक विद्या भी उन्होंने हासिल की,,,जिसके लिए कई रात उन्हें श्मशान घाट में रहना पढ़ा (किसी गरीब परिवार के सदस्य के बिना जले मृत शरीर को पाने के लिए,,, क्योंकि हिन्दू मान्यता के अनुसार अंतिम क्रिया आदि के लिए जिनके पास पैसे नहीं होते थे, वो रात के अँधेरे किसी सुनसान श्मशान घाट में शरीर ऐसे ही छोड़ जाते थे!),,,उन्होंने भी एक विवाहित नवयुवती का शरीर पा (हिन्दू मान्यतानुसार ऐसे व्यक्तियों की आत्मा अधूरी इच्छा के कारण भटकती हैं, उन्हें मोक्ष नहीं मिलता!) कुछ क्रियाएं की और उसकी आत्मा को अपने नियंत्रण में किया,,,और अब, जब वो किसी आगंतुक को मिलते हैं तो, वो आत्मा उनके कान में उसके बारे में उन्हें सूचना दे देती है,,,और क्यूंकि आत्माएं द्रुत गति में बोलती हैं, अभ्यास के कारण तांत्रिक उनकी भाषा समझ जाते हैं!
फिर किसी मित्र ने बताया (कितना सही अथवा झूट) कि वे आत्मा को फुटबाल के ब्लैडर के भीतर एक डब्बे में बंद रखते हैं, सरसों के बीज के भीतर ढक कर (जिससे मुझे याद आया कि कैसे हमारी माँ भी बचपन में 'राई परख' करती थी यदि हम बाहर से आ परेशान लगते थे, यानि 'भूत भगाने' के लिए यह क्रिया आम अपनाई जाती रही होगी)!...

उपरोक्त कथा क्रम द्वारा, जो मुझे पत्नी के शारीरिक कष्ट के और समय और स्थान (पूर्वोत्तर दिशा, पृथ्वी का मूलाधार) के कारण उनके पहले तो एलोपैथी, होमीओपैथी, आयुर्वेदिक, आदि पद्दतियों की झलक दिखा फिर तांत्रिकों के भी निकट ले गया,,,और उसके पश्चात दिल्ली लौट गीता आदि के अध्ययन कर गहराई में जाने का कारण बना (यानि सत्य की खोज?)...

JC said...

आम आदमी के लिए 'भविष्यवाणी' का अर्थ अथवा उद्देश्य सीमित होता है; यानी अपने और अपने परिवार के सदस्यों के सीमित जीवन काल में 'भविष्य' (जो शायद 'भूत' ही हो) में संभावित घटनाओं आदि के बारे में जानना हस्तरेखा (जिसमें मुझे बचपन से रूचि रही) अथवा जन्म-कुंडली (जिसे सीखने का मौका बहुत देर से गौहाटी में मिला, इसलिए थोडा सा सीख गहराई में नहीं गया) आदि पढ़ ,,, और भय के कारण, उनसे सम्बंधित संभव उपाय यदि कोई दुर्घटना, बिमारी आदि होने की सम्भावना दिखाई पड़ती हो,,,और जैसा देखने में आता है, मानव समाज छोटी से छोटी बात पर अधिकतर कम से कम दो, या तीन, विचारों में तो बंट ही जाता है, यानि कुछ समर्थक और कुछ विरोधक,,,और जहां संख्या अधिक हो तो एक तीसरा बीच का, न इधर का न उधर का...इस कारण निजी तौर पर अधिकतर जानने का प्रयास नहीं करते...

मुझे भी पहले निराकार परमात्मा में तो विश्वास था किन्तु मंदिर आदि जाने में मेरी रूचि नहीं थी,,, गौहाटी में आने के पश्चात, देरी से कामख्या मंदिर जाना और पिताजी के 'हाई प्रेशर' वाली घटना ने तो मुझे चौंका दिया था, उसके बाद जब में इम्फाल जाने के लिए तैयार बैठा था तो उस समय मेरी १० वर्षीया बेटी ने जब एक दिन मुझसे पूछा "आपकी फ्लाईट कैंसल हो गयी?" तो मैंने कहा 'नहीं! अल्पाहार कर मुझे एअरपोर्ट मेरे एक सहकर्मी छोड़ देंगे'...किन्तु आश्चर्य हुआ जब जहाज आया किन्तु इम्फाल न जा वापिस दिल्ली लौट गया! और मैं अगले दिन ही जा पाया! मैं सोच में पड़ गया कैसे एक आम लड़की, मेरी बेटी, को पूर्वसूचना मिली? फिर अचानक याद आया कि वो दिन एक महत्वपूर्ण दिन था हमारे परिवार के लिए क्यूंकि ठीक तीन वर्ष पहले उस तारीख को (८/१२/'७८) दिल्ली में हमारी माँ की मृत्यु हुई थी (और देवकी समान उन्होंने आठ बच्चों को जन्म दिया जिनमें २ अल्पायु में ही गुजर गए थे)!!! और में एक दम भूल गया था क्यूंकि उस तिथि से सम्बंधित वार्षिक श्राद्ध आदि का उत्तरदायित्व हमारे दिल्ली स्थित बड़े भाई का था!!!
क्या ऐसे ही जगत-जननी, जगदम्बा, जगत की रचयिता भी हमें, हमारी इस जन्म की माँ के माध्यम से जैसे, अपनी ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती होगी कभी? ऐसा विचार मेरे मन में आया तब...

JC said...

मन में यह भी विचार आया था कि क्यूँ मेरी बेटी को माध्यम चुना, मुझे ही सीधे विचार क्यूँ नहीं दिया? आदि आदि...फिर सोचा कि ऐसे विचार मन में वैसे भी आते रहते हैं, रेलगाड़ी छूट न जाए, आदि,,,और शायद इस लिए बेटी, 'कुंवारी कन्या', को माध्यम बना किसी अदृश्य शक्ति ने, जो शायद मेरे भीतर भी विद्यमान हो सकती थी, उसने अपने अस्तित्व की पुष्ठी की थी!,,,ऐसी घटनाओं ने और दूसरी ओर पत्नी की लाइलाज बीमारी ने भी मेरे मानस को झकझोर के रख दिया था...फिर लगभग २ वर्ष के भीतर जब मेरी पत्नी ने मुझे कार्यालय के लिए निकलने से पहले कोई दो वस्तु-विशेष लौटते समय बाज़ार से खरीद ले आने को कहा, तो मैंने कहा कि यदि माँ याद दिलाएगी तो ले आऊंगा!! पत्नी ने मुझे कहा आप डायरी में लिख लो तो नहीं भूलोगे...जिसके उत्तर में मैंने फिर दोहराया कि वो यदि याद दिलाएगी तो ले आऊँगा!
शाम जब कार्यालय से निकला तो एक वस्तु, जो एक दम याद आई, तुरंत खरीद ली,,,किन्तु दूसरी याद ही न आके दी, जिस कारण बाज़ार के बीच पैदल लगभग १५ मिनट चल हर दूकान में नज़र डाल सोचता गया वो क्या हो सकती थी? किन्तु वो याद आई ही नहीं! फिर सोचा लिख लिया होता तो ऐसी परेशानी तो नहीं होती! और फिर जब आकाश की और देख, उसे मन में कहा, "आज मरवा दिया"! और फिर शांत हो निर्णय लिया कि घर चलते हैं और यदि बहुत आवश्यक वस्तु हुई तो फिर बाज़ार आजायेंगे! तिराहे पर रिक्शा की ओर कदम बढ़ाये ही थे कि ऐसा लगा किसी ने मेरे बांये कान में कहा, "कोनी"! यानी असमिया में, 'अंडा', वही वस्तु जो मुझे खरीदनी थी! उसकी दूकान भी वहीं पास ही थी,,,सो जब उसे ले में घर लौट रहा था तो शायद उस समय में संसार का सबसे खुश व्यक्ति रहा हूँगा, जिसको माँ ने स्वयं एक छोटी सी वस्तु अंडे की भी याद दिलाई,,,जबकि 'ब्रह्माण्ड' अनंत है! (यद्यपि घर में लौट मेरी पत्नी ने ऐसे सुना और मुझे ऐसे देखा जैसे किसी पागल को देख रही हो!)...

JC said...

यदि मैं कहता कि माता की कृपा से मेरी करोड़ रुपये की लौटरी लगी है तो शायद पत्नी प्रसन्न होती,,,न कि मेरी मूर्खता पर कि मैं केवल एक अंडे खरीदने के लिए मुझे याद दिलाने से ही खुश!,,,और शायद हो सकता है उसने सोचा हो कि मैंने मजाक में कहानी बना ली हो, अथवा किसी को बाज़ार में संयोगवश उसी समय 'कोनी' कहते सुना हो और यह समझा हो कि किसी ने मेरे कान में वो कहा हो (जैसा किसी एक अन्य व्यक्ति ने मुझे कहा था मेरी बात सुन!)...
यद्यपि 'हिन्दू मान्यतानुसार' सब मानते हैं कि केवल भगवान ( शिव) ही सर्वगुण संपन्न है और आम आदमी (काल के प्रभाव से, काल चक्र सतयुग से कलियुग की ओर जाने के कारण) गलती का पुतला (मान्यतानुसार सतयुग के अतिरिक्त किसी भी अन्य युग में)... जो आम आदमी को, वर्तमान में, असंभव लगता हो, उसे कोई व्यक्ति कर के दिखा दे तो हम उस व्यक्ति को चमत्कारी अथवा सिद्ध पुरुष मान लेते हैं (यदि वो कोई माना हुआ 'जादूगर' न हो),,,और अनपढ़ तो संभव है उसे 'भगवान्' मान लें,,, और फिर पढ़े-लिखे भी मानने लगें और काल के साथ मानते वालों की संख्या बढते चली जाए, यदि उनमें से अधिकतर किसी समय बिंदु पर उसके द्वारा ठगे न जाएँ, जैसा 'वर्तमान' में आम सुनने में आता है कई 'बाबा' लोगों के बारे में ...

यह जानते, अथवा मानते हुए कि मानव ईश्वर का ही प्रतिरूप है, और इस कारण उसकी किसी भी काल की कार्यप्रणाली के माध्यम से निराकार ब्रह्म, साकार ब्रह्माण्ड के स्रोत, सर्वगुण संपन्न शिव तक पहुंचना संभव हो सकता है किन्तु कलियुग होने के कारण वर्तमान में तपस्या अधिक करनी होगी किसी भी साधक को...

JC said...

अनंत काल-चक्र में सीमित समय में अनंत विषयों से सम्बंधित ज्ञानोपार्जन की आवश्यकता देखते हुए आम आदमी के हित में गीता में विष्णु (नादबिन्दू) के अष्टम अवतार, श्री कृष्ण, को योगियों ने कहते दर्शाया कि वो सब कुछ छोड़ कृष्ण की शरण में आजाएं जिस से वो स्वयं उनके परम स्वरुप ('परम सत्य') तक, उनको ऊँगली पकड़ ले जाएँ...किन्तु यह शायद उनकी लीला का ही अंश है, अथवा काल का प्रभाव, कि 'साबुन के साथ एक चम्मच मुफ्त मिलने' का विज्ञापन पढ़ हम तुरंत दौड़ पड़ें किन्तु (अज्ञानता वश?) हम अधिकतर पढ़ भी लें तो उसका अनुसरण करने में अपने आपको असमर्थ पाते हैं!

'

JC said...

यदि जैसे भूत में ज्ञानी योगियों ने जाना, किसी ने जान लिया अथवा मान लिया, कि मानव जीवन इतिहास है, अनंत कहानियाँ हैं, अजन्मे और अनंत शून्य यानि शक्ति रूप के शून्य से अनंत को दर्शाते काल-चक्र में अपने ही अनंत साकार रूपों के माध्यम से स्वयं को जानने के प्रयास को (?),,,और शायद अपने मूल को न समझ पाने को,,, जिस कारण काल-चक्र के पूर्वनिर्धारित क्रम से (१०८० बार सतयुग से कलियुग तक, ब्रह्मा के एक दिन में) निरंतर घूमते रहने को...और अपना इतिहास अपनी 'तीसरी आँख' में देख पाने को विभिन्न आँखों से, जिसकी झलक योगी भी देख सकते हैं अपने मन कि आँख में कभी कभी, आम आदमी को अचम्भे में डाल! (कृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा कि वो अपने इसी जीवन के बारे में ही केवल जानता था,,, जबकि कृष्ण उसके साथ आरंभ से जुड़े होने के कारण उसके भूत के बारे में भी सब जानते थे!

JC said...

अभिषेक जी, भारत में आज भी कई चमत्कार देखने को मिलते हैं अथवा उनके बारे में समाचार पत्रादि में देखने को यदाकदा मिल जाते हैं...
जैसा मैंने पहले एक बाबा के बारे में कहा था,,, मरे हुए को जिलाने की मान्यता के बारे में,,, बाबा ने मुझे टेप रिकोर्डर पकड़ा इधर उधर चले गए (जिसमें प्रश्न-उत्तर के रूप में उनके द्वारा बनायीं गयी औषधियों से केंसर जैसे भयनक रोग को ठीक कर देने के बारे में बातें थी), उस बीच मैंने उसी बाबा के एक चेले से भी पूछा था तो उसने कहा कि वो केवल एक वर्ष से ही उनके साथ था इस कला को सीखने किन्तु उसके सामने ऐसा मौका तब तक नहीं आया था...
यद्यपि मैंने स्वयं नहीं देखा, जिसका मुझे अफ़सोस है, किन्तु एक दिन मेरे स्टाफ ने, जो मुझे बिना बताये कार्यालय से निकल गए थे और लौट कर उन्होंने बताया कि कैसे उन्होंने देखा कि कैसे उसने बच्चे को फर्श पर लिटा, उसके बगल में एक चूजा रख, कुछ मंत्र आदि बोल सिन्दूर का उपयोग कर छड़ी एक बार बच्चे के ऊपर घुमा फिर चूजे के ऊपर घुमाई तो बच्चा हँसता हुआ उठ खड़ा हुआ और चूजा ढेर हो गया!

JC said...

क्षमा प्रार्थी हूँ कि पिछली पोस्ट में गूगल के माध्यम से अंग्रेजी से हिंदी करने के क्रम में कहीं एक लाइन ही कट गयी!
मैंने वास्तव में कहना चाहा था कि मेरे कार्यालय के समीप एक परिवार के बारह वर्षीय लड़के को सांप ने काट लिया था,,,यद्यपि वो चार दिन तक तो ठीक ही था किन्तु फिर उसका शरीर नीला पड़ जाने पर सांप वाले को बुला लिया गया था,,, और जैसा मेरे स्टाफ ने मुझे बताया उसने उस बालक को बचा लिया था,,, न कि उस बाबा ने जिसका मैंने पहले चर्चा किया था...(उसके पहले, मुझे उसने बताया था कि कौब्रा, क्रेत आदि अत्यधिक विषैले सर्प यदि किसी को काट लें तो, क्यूंकि वो विष तुरंत ह्रदय पर पहुँच जाता है, उसके इलाज का समय बहुत कम मिल पाता है,,,किन्तु भाग्यवश ९०% सांप अधिक विषैले नहीं होते जिस कारण उनका विष हृदय तक पहुँचने में कई बार चार दिन तक लग जाते हैं...इस कारण यदि सांप हाथ-पैर में काट ले तो सबसे पहले दस-बारह इंच ऊपर कपडे से बाँध कर किसी जानकार को बुला लेना चाहिए...

JC said...

इसे कोई दार्शनिक दृष्टिकोण कहे अथवा सत्य, यदि विभिन्न 'हिन्दू' मान्यताओं के आधार पर देखा जाए, तब शायद कोई अनुमान लगा सकता है कि प्राचीन योगियों के अनुसार, (जिन्होंने अपने जीवन-काल में भूख-प्यास पर भी नियंत्रण हासिल किया), पानी (पंचभूतों में से एक तत्व) का एक फव्वारा मानव जीवन के काल-चक्र को समझाने में सहायक हो सकता है (लगभग एक बिंदु से जल बाहर निकल, कई धाराओं में बंट, विभिन्न धाराओं में फिर नीचे गिरता प्रतीत हो),,, जो निरंतर बहता आ रहा हो और जिसका सर्वोच्च स्तर चार चरणों में, पहले १००% से घट ७५%, फिर ७५% से ५०%, फिर ५०% से २५%, और अंत में २५% से लगभग ०% पहुँच फिर से १०० % पहुँच जाए,,,और फिर उसी प्रकार चार चरणों में लगभग शून्य तक पहुँच यही एक दिन की कहानी दोहराए, एक चक्र में ऐसे कुल १०८० बार,,, और जिस सम्पूर्ण चक्र को पूरा होने में लगभग साढ़े चार अरब वर्ष निकल जाएँ,,,और उसके पश्चात फिर उतनी ही लम्बी रात आ जाती है (जैसे कि आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार हमारे सौर-मंडल की अनुमानित आयु आज हो गयी है, और वर्तमान में पर्यावरण शास्त्री पृथ्वी की सेहत के लिए चिंतित हैं)...आम आदमी सम्पूर्ण फव्वारे का आनंद उसे दूर से देख उठाता है,,, किन्तु अपने क्षणिक जीवन काल में, केवल ऊपर चढ़ती बूंदों समान, उपरे स्टार पर दीखते व्यक्तियों को ही देख रहा होता है, अथवा अधिकतर नीचे गिरती धाराओं समान नीचे जाते अपने को (कलियुग में?) पाता है…

JC said...

गीता में योगियों ने केवल शरीर के भीतर आत्मा (बिंदु समान, नादबिन्दू का एक प्रतिरूप) को ही महत्वपूर्ण दर्शाया,,,जिसे हम फव्वारे में बहते पानी की अनंत बूंदों के रूप के माध्यम से समझ सकते हैं जो सब दिशा में और हर स्थान में व्याप्त हैं, भले ही वो विभिन्न धाराओं (क्षेत्र) से सम्बंधित हों और एक बिंदु-विशेष समान बूँद उच्च अथवा निम्न स्तर पर ही क्यूँ न दिखे किसी दृष्टा विशेष को...किन्तु बाहरी, 'मायावी', आवरण के और दूषित इन्द्रियों के कारण हम 'अज्ञानी', आम आदमी, दुःख अथवा सुख की अनुभूति करते रहते हैं...
उधर दूसरी ओर गीता में उपदेश पढने को मिलता है कि हर व्यक्ति को हर स्तिथि में एक सा ही रहना चाहिए, (कृष्ण लीला, राम लीला समान नाटक के) दृष्टा भाव से जीना चाहिए, आदि, कृष्ण में आत्म-समर्पण कर...किन्तु शायद इसे माया ही कहेंगे कि हर व्यक्ति साधारण तौर पर (अनजाने और अनदेखे होने के कारण) 'कृष्ण' में आत्म-समर्पण करने में अपने आप को असमर्थ पाता है (क्यूंकि पढने को मिलता है कि कैसे 'सत्यवादी' हरीशचंद्र को 'सतयुग' में अनुभव हुवे, और दारुण शारीरिक और मानसिक कष्ट पाया,,,यद्यपि अंत भला ही क्यूँ न दर्शाया जाता हो?!)...इस कारण कठिन है जान पाना कि क्यूँ योगियों द्वारा गीता में कहा गया कि पृथ्वी पर मानव-जन्म का उद्देश्य केवल निराकार ब्रह्म को और उसके साकार रूपों को जानना भर है (मानस मंथन द्वारा माया को भेद!)...

JC said...

जैसा मैंने पहले भी कहा, भारत में, विशेषकर पूर्वोत्तर में, दैविक शक्ति का उपयोग कभी हावी रहा होगा,,,और जैसा मैंने ८० के दशक में अनुभव किया या मुझे सुनने को मिला, वर्तमान में भी उसकी झलक यदाकदा मिल जाती है, किन्तु कह सकते हैं निम्न स्तर तक ही...एक बंगाली सहकर्मी ने बताया कि कैसे उसकी लड़की कि राशि 'तुला' है, किन्तु आम तौर पर लोग राशि नाम के स्थान पर कोई दूसरे नाम से पुकारते हैं जिससे किसी की सही राशी का पता (तांत्रिक आदि को) न पता चल जाए...

वो किसी समय अपनी बहन के घर त्रिपुरा में रहने आया था तो एक दिन उसकी बहन ने बताया की उसकी सोने की चेन सुबह से नहीं मिल रही थी, और जैसा आम होता है उसको शक अपनी काम करने वाली पर हुआ किन्तु वो चाहती थी की किसी तान्त्रिक को बुलाया जाये...उसने किसी कुंवारी तुला राशि वाली लड़की को तैयार करने को कहा,,, और क्यूंकि मामला बहन का था तो एक शनिवार उसने अपनी लड़की को बिठा दिया तांत्रिक के साथ घर के बाहर खुले में...तांत्रिक ने 'नख दर्पण' का उपयोग किया, जिसमें उसके अंगूठे के नाखून में काजल लगाया गया और कुछ क्रिया के पश्चात उसे पूछा यदि वो उस में चार बूढ़े व्यक्तियों का प्रतिबिम्ब देख पा रही थी? जब उसने हाँ कहा तो उसने अब उसको बुआ के हार को उसमें देखने को कहा और उस जगह को अच्छी तरह याद रखने को...यद्यपि यह क्रिया दुबारा करनी पड़ी क्यूंकि पहली बार लड़की ने कहा पूखरी (तालाब में जिसमें बर्तन, कपडे आदि धुलते थे) में है, किन्तु सही स्थान वो भूल गयी थी... दूसरी बार वो सीधे गयी और उसने पानी से हार बाहर निकाल लिया!

JC said...

हमारे मामाजी पहाड़ से आयुर्वेदिक चिकित्सा के लिए कई वर्ष पहले दिल्ली (पंजाबी बाग) आये हुए थे क्यूंकि वो बहुत वर्षों से गठिया बात से पीड़ित रहते थे और इस कारण कई चिकित्सकों से (विभिन्न पद्दति के) मिलते चले आ रहे थे...उस दौरान बातों बातों में उन्होंने एक विचित्र अनुभव भी बताया कि कैसे किसी शुभ चिन्तक ने उन्हें एक मुस्लिम कांट्रेक्टर को मिलने का सुझाव दिया जो मैदानी इलाके में कार्यरत थे... जब एक बार उन्हें काफी कष्ट था तो, वे कोर्ट से सप्ताह का अवकाश ले बेटे के साथ, बस से उतर, सीधे उनके घर शाम के समय पहुँच गये, जब वो सूट-बूट में अपने घर में लकड़ी के फर्श पर खड़े थे ...और अभी मामाजी ने अपनी राम कहानी आरंभ ही की थी तो उन्हें यह देख आश्चर्य हुआ कि उस सज्जन ने खड़े खड़े ३ बार जूते से फर्श को पीटा, और फिर पूछा यदि उनको अभी भी दर्द हो रहा था?! तब उन्होंने महसूस किया कि उनका दर्द गायब हो चुका था! उन्होंने फिर उन्हें एक मील घूम के आने और बताने को कहा...मामाजी २ मील घूम आये और उनकी ख़ुशी की कोई सीमा न थी जब उन्हें बताया कि दर्द न था और अब एक सप्ताह वहां रुक वोअपने निजी कार्य कर लेंगे! किन्तु तीन दिन बाद ही दर्द फिर लौट आया!

अब उन्होंने लगभग ८ इंच का एक गोला सफ़ेद कागज़ पर काली पेंसिल से बनाया और उसकी परिधि में उर्दू के कुछ शब्द लिख दिए,,, और यद्यपि भाषा उनको नहीं आती थी उन्हें केवल देखने को बोला... जब तक वो उस आकृति को देखते थे दर्द नहीं होता था किन्तु इधर उधर देखने से दर्द फिर आरंभ हो जाता था! बताने पर उन्होंने कहा कि उन पर हावी रूह उनकी शक्ति के बाहर थी! इस कारण उन्होंने मामाजी को अपना ताबीज़, जो उनको उनके गुरु ने दिया था, जेब में रखने को कहा किन्तु घर लौटते समय उन्हें वापिस कर जाने को कहा...उनको दर्द नहीं हुआ जब तक ताबीज़ उनकी जेब में था किन्तु वापिस करने पर वो फिर लौट आया...
जब में मामाजी को उनके घर दस पंद्रह वर्ष पश्चात मिला तो उन्होंने मुझे बताया कि उसके बाद से उन्होंने यह सोच चिंता छोड़ दी कि यदि वो आत्मा उन्हें शारीरिक कष्ट दे रही थी तो शायद उसीके कारण उनकी वकालत, परिवार आदि भी अच्छे चल रहे थे!

JC said...

किसी के भी मन में शायद कभी किसी पल यह प्रश्न उठ सकता है कि मन में विचार आते कहाँ से हैं? और हर एक को अलग अलग क्यूँ आते हैं? शायद इसके उत्तर के लिए हमें सोचना होगा, और संभव हो तो जानना होगा, कि निद्रावस्था में स्वप्न अनादिकाल से कैसे दिखाई पड़ते हैं, मानव को ही नहीं अपितु अन्य कई 'निम्न श्रेणी' के प्राणियों को भी, किसी अनदेखे प्रोजेक्टर द्वारा दर्शाए गए जैसे? इस पृष्ठभूमि में कि पहले कई रीलों में फिल्म रिकौर्ड होती थी किन्तु आज एक छोटे से डीवीडी में पूरी फिल्म आ जाती है,,, इशारा करते हुए कि जैसे प्राचीन हिन्दुओं ने भी रचयिता को नादबिन्दू दर्शाया, अनंत शक्ति का एक स्रोत, किन्तु सर्वगुण संपन्न भी...

क्या वैसे ही मात्र एक विशेष बिन्दु, परमात्मा में, अनंत समांया हुआ हो सकता है? उसके स्वयं का इतिहास, शून्य से अनंत की प्राप्ति का और जो हर प्राणी शरीर के भीतर भी उपस्थित माना जाता है - फूल में छुपी खुशबू समान... और, मानव, ज्ञानियों द्वारा उसी का माना गया प्रतिरूप, क्या अपने शरीर में, (किन्तु एक बिंदु के स्थान पर, उसके आठ प्रतिबिम्ब बिन्दुओं में, एक पुस्तक के तथाकथित आठ अध्याय समान), ८ चक्रों में कुल मिला जुला कर, श्रृष्टि का सम्पूर्ण इतिहास समाये हुआ है, श्रृष्टि की विविधता दर्शाने के लिए? जिसका हर व्यक्ति में, प्राकृतिक तौर पर एक सम्पूर्ण जीवन काल में, विभिन्न स्तर तक केवल कुछ अंश ही उसके मस्तिष्क तक पहुँच पाता है, भले ही उसे हम निद्रावस्था कहें अथवा जागृत अवस्था,,, और समय समय पर जिस में से कुछ का उपयोग करते हुए, हरेक भौतिक क्षेत्र में किसी एक समय पर, हर कोई व्यक्ति पूर्वनिर्धारित कार्यक्रमानुसार विभिन्न स्तर पर दिखाई देता है - कुछ उच्च तो कुछ निम्न स्तर पर पहुंचे हुए...जिस कारण प्रकृति की विविधता की झलक पशु संसार के माध्यम से (सर्वश्रेष्ठ कृति मानव के माध्यम से भी) प्रतिबिंबित होती प्रतीत होती है,,,और जिस कारण किसी भी काल में ज्ञानी लोगों को किसी एक अनदेखे और अनजाने व्यक्ति, अथवा जीव विशेष का हाथ होना प्रतीत होता आया है,,,और विभिन्न काल और स्थान में उसे भिन्न भिन्न नाम दिए जाते रहे हैं,,, जिस कारण अनेक मतभेद भी दिखाई पड़ते हैं (जिसे प्राचीन कथन दर्शाता है "हरी अनंत हरी कथा अनंता,..."), जिस कारण आम आदमी आम तौर पर किसी एक तथाकथित उच्च स्थान पर भूत अथवा वर्तमान में पहुंचे गुरु विशेष के मार्गदर्शन से जीवन व्यतीत करना सरल तो पाता है किन्तु संभवतः स्वयं 'परम सत्य' से अनभिज्ञ...जिस कारण उपदेश दिया गया की हर व्यक्ति अपनी आत्मा को परमात्मा से मिलाने का प्रयास करे अपने सीमित जीवन काल में...

JC said...

महाशिवरात्री की पूर्व संध्या पर "पृथ्वी आरम्भ में अग्नि का गोला थी",,, इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रख, 'भगवान्', 'गंगाधर शिव', को किसी बुद्धिमान किसान समान सोचता हूं जिस ने एक बंजर भूमि के टुकडे को खाद इत्यादि डाल तैयार कर, हल चला, बीज रोप, पानी दे,,, और अंकुरित पौधों का, खर पतवार आदि हटा निरंतर ख्याल कर,,, बंजर भूमि को एक दिन हरी भरी खेती में परिवर्तित हुए देखा तो वो अपने कठिन परिश्रम को सफल होते देख अत्यंत प्रसन्न हो उठा ,,,और, यद्यपि विभिन्न प्रकार के पेड़ पौधों के उपयोग से वो 'कल्पतरु' को भी पा अमर हो गया था, किन्तु स्वयं अकेला ही रह गया था,,, इस लिए वो दुखी हो गया, क्यूंकि कोई नहीं था जिससे वो अपनी ख़ुशी बाँट सके! ...

कुछ करने को अब न रह गया था, तो फिर अपना भूत देखने, यानि अपने आरंभिक काल की छवि को देखने के लिए, उसने अपने मन में, जैसे फिल्म को उल्टा चला, देखा तो कुछ कुछ प्रसन्नता प्राप्त की जब अपने सभी परिवार के सदस्यों, और कुछ प्रिय मित्रों आदि, जो भिन्न भिन्न समय पर उससे बिछड़ गए थे, उन सब की धूमिल छवि फिर से अपने मन में देख संतोष किया,,, और 'माया' के कारण एक हरी-भरी भूमि को बद से बदतर होते भी देखा और, अंततोगत्वा, बंजर भूमि में परिवर्तित होते पाया, किन्तु दुःख न हुआ क्यूंकि उसको 'सत्य' का पता था - उस सर्वगुण संपन्न अजन्मे और अनंत जीव के अतिरिक्त कभी कोई और था ही नहीं!

Amit Sharma said...

आप सभी को होली की हार्दिक शुभकामनाएं । ठाकुरजी श्रीराधामुकुंदबिहारी आप सभी के जीवन में अपनी कृपा का रंग हमेशा बरसाते रहें।

JC said...

यदि कोई व्यक्ति किसी दारुण शारीरिक कष्ट से रोग ग्रस्त है, जिसका इलाज नहीं मिल रहा, तो उसके मन में इच्छा जाग जाती है येन केन प्रकारेण रोग मुक्ति की,,,जैसे गुवाहाटी में ८० के दशक में मेरी मुलाक़ात एक और अफसर से हुई तो उसने मुझ से पूछा यदि उसे देख मैं कह सकता था कि वो भी किसी शारीरिक कष्ट से पीड़ित रहा होगा? वो ऊंचा पूरा, हृष्ट पुष्ट, मोना सिख था जिसने अपनी आप बीती सुनाई की कैसे जब वो कोलकाता में कार्यरत था तो उसके टखने अकड़ गए थे और वो एलोपैथिक इलाज कराने लगा,,,कुछ वर्ष निकल गए दवा खाते और सदैव गरम पानी से नहाते, जब उसके घुटने भी प्रभावित हो गए,,,इलाज चलता रहा, किन्तु कुछ वर्ष बाद उसका हिप-जोइंट भी पकड़ में आ गया ! सिख होते हुए भी वो 'माता' को मानते थे,,,जिस कारण वो परिवार समेत वैष्णो देवी के लिए रवाना हो गए...वो मंदिर १२ किलोमीटर घसिटते हुए रात १२ बजे पहुंचे जहां उन्हें सरोवर के ठन्डे जल में स्नान के पश्चात देवी के दर्शन करने को कहा गया...इतने वर्षों से गरम पानी से नहाते आ रहे व्यक्ति के मस्तिष्क में क्या चलेगा कोई भी सोच सकता है,,,किन्तु यह सोच कि अब केवल दिल के जकडे जाना कभी भी संभव है, माता में आत्म समर्पण कर, उन्होनें नहा कर दर्शन कर विश्राम ग्रहण किया...सुबह सवेरे उठ उन्हें आश्चर्य हुआ जब उन्होनें पाया कि उनका दर्द गायब हो चुका था और वो सरलता पूर्वक नीचे उतर पाए! चूंटी काटी कि कहीं स्वप्न तो नहीं देख रहे थे? फिर हंसते हुए बोले कि क्यूंकि मैं सरदार हूँ, पक्का करने के लिए मैं फिर ऊपर मंदिर गया और फिर से नीचे आ गया...और तब से वो बिलकुल ठीक ठाक थे! वो कह नहीं सकते थे कि वह क्या था, उनकी आस्था, स्थान, अथवा काल? (वैसे तो कोलकाता भी 'माँ काली' का घर माना जाता है !)

JC said...

आज हम पश्चिम के माध्यम से जानते हैं कि मानव मस्तिष्क एक गजब का कॉम्प्यूटर है जिसमें अरबों सेल हैं किन्तु उनमें से एक नगण्य प्रतिशत का ही उपयोग कर सकता है 'सबसे बुद्धिमान' व्यक्ति भी,,,यानि आम आदमी इस प्राकृतिक कॉम्प्यूटर का सही उपयोग बिलकुल नहीं जानता...फिर भी जोगी आदि प्राचीन ज्ञानी पुरुषों कि साधना और उनके द्वारा छोड़े गए कथन आदि से सत्य को कुछ कुछ जान,,,और परम सत्य को शून्य काल और स्थान से जुड़ा मान,,, शायद उसके साथ केवल मौन यानि थोड़े से समय के लिए ही शून्य में पहुँच सम्बन्ध स्थापित कर सकता है,,,क्यूंकि आधुनिक वैज्ञानिक भी अनुभव किये हैं कि यदि किसी जटिल प्रश्न का उत्तर न मिल रहा हो तो उसको सोचते सोचते सो जाओ,,,और संभव है कि सुबह जागने के तुरंत पश्चात आपको अपने मन में ही उसका उत्तर मिल जाए! "करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान..."!

JC said...

हिन्दू मान्यतानुसार सृष्टि की रचना ब्रह्मनाद, बीज मन्त्र ॐ, से अजन्मे और अनंत निराकार नादबिन्दू द्वारा की गयी,,,और नादबिन्दू का निवास स्थान हमारी पृथ्वी के केंद्र बिंदु में दर्शाया गया - पृथ्वी को ब्रह्माण्ड के केंद्र में माना जाता रहा,,,जब तक वर्तमान में, हाल ही में कुछ सदियों में, भारत के पश्चिम देशों में सत्य की खोज ने प्रगति की,,, यद्यपि अभी पूर्ण होनी रहती है, या कहिये जैसा न्यूटन ने भी स्वीकारा और कुछ आधुनिक वैज्ञानिक भी मानते हैं, अभी वैज्ञानिकों को बहुत कुछ पाना शेष है, फिर भी जन-मानस में एक ऐसी भावना पैदा हो गयी कि जैसे प्राचीन 'हिन्दू' मूर्ख थे, और 'हम' उनकी संतानें हिन्दू अन्धविश्वासी हैं जो बिना स्वयं सत्य को जाने, उनकी मर्कट समान नक़ल कर, पीढ़ी दर पीढ़ी तक किसी भी वस्तु, जीव अथवा निर्जीव को भगवान्, श्रृष्टि का कर्ता, मान पूजते चले आ रहे हैं!
सब यह भी जानते हैं कि किसी समय भारत में यदि मानव शरीर को ब्रह्माण्ड का प्रतिरूप माना गया, पश्चिम में उसे भगवान् की ही तस्वीर या प्रतिबिम्ब (इमेज),, , और क्यूंकि आज शीशे में हर कोई अपना प्रतिबिम्ब नित्य प्रति निहारता है, भगवान् को केवल सशरीर रूप से परे नहीं सोच पाने के कारण, शब्दों के जाल में फँस, परम सत्य तक पहुच ही नहीं सका है जैसा प्राचीन हिन्दू 'माया' शब्द के प्रयोग द्वारा शक्ति रूप निराकार ब्रह्म को परम ब्रह्मा; परम ज्ञानी, सर्वगुण संपन्न आदि जान, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को उसमें ही, एक बिन्दू में, समाया पा मानव रूप को उसका स्वयं का इतिहास जानने का माध्यम जाने जो जीव की शून्य से (केवल शक्ति से) अनंत भौतिक पृथ्वी की उत्पत्ति तक उसके तीसरे नेत्र में दर्शाने में सक्षम हैं, और वो भूतनाथ वास्तव में अकेला ही है!

किलर झपाटा said...

बहुत सही लिखा आपने मिश्रा जी, मैं आपके साथ हूँ।

SANDEEP PANWAR said...

बेहतरीन लेख,

Atish Mishra said...

मिश्रा जी बहुत बढ़िया हर व्यक्ति के मन में एस तरह के विचार आते हैं पर आपने व्यक्त किया