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Friday, January 7, 2011

कार्य - कारण श्रंखला

इस लेख से पहले मैं अमर बलिदानी चंद्रशेखर आजाद की जयंती पर उन को सत सत नमन करता हू . मेरे ग्राम बदरका में उन का जन्म दिन आज के ही दिन ७ जनवरी को मनाया जाता है . मुझे गर्व है की चन्द्र शेखर आजाद का बचपन मेरे घर में ही बिता जो आज भी हमारे ही पास उन की निशानी के तौर पर है और उन की माँ का ख़त मेरे दादा जी के नाम   उन की मृत्यु के बाद 
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बहुत से लोग पुनर्जन्म और भारतीय संस्कृति  की यथार्त्ता  पर  प्रश्न उठाते है . यथार्थवादियों  का मानना है की  मूर्खो को डरा कर गलत कम करने के रोकने के लिए इन पुनार्जमं की परिकल्पना की गयी जहा कर्मो के हिसाब से जन्म मिलता है . उन सब प्रश्नों और भी बहुत से प्रश्नों का उत्तर आप को कार्य कारण श्रंखला में मिल जायेगा . प्रकृति का अटल नियम  है यह कार्य कारण श्रंखला जिसे पूर्णतया वैज्ञानिक  तरीके से समझा जा सकता है  .
इस के अनुसार हम आज जो कर्म कर रहे है उस का कारण हमारा पिछला किया हुआ कर्म है और  हमारा आज का कर्म ही भविष्य में किये जाने वाले कर्म का बीज है .ये श्रंखला अनन्त से आई है और अनत तक जाएगी . इस के बाहर आना ही मोक्ष  है . 
प्रकति का अटल नियम है की यदि आप पूर्व दिशा की ओर जा रहे है आप पूर्व की ही ओर जायेंगे पश्चिम नही , हाँ आप को भ्रम जरुर हो सकता है . यही कार्य कारण श्रंखला का भी आधार है . आने वाला कल हम आज बनाते है . क्यों की हम बहुत ही थोडा जानते है अतः हम यह समझ नही पाते और कभी  ईश्वर को दोष देते है तो कभी भाग्य की सराहना और दोष .
यदि ऐसा न हो तो फिर प्रकति व्यवस्थित और संतुलित हो ही नही सकती . आप कुछ भी करने के लिए स्वतन्त्र है .
प्रकति  इसी नियम से अनुसार खुद को संतुलित करती है . 
विचार  ही कर्म करने के लिए प्रेरित करता है . अतः विचार ही कर्म का आधार है और यह हमारे पूर्व कर्म या प्रकृति के द्वारा ही आता है . प्रकृति के द्वरा तो यह एक लम्बी प्रक्रिया से अनेक मस्तिष्को में सफ़र करते हुए आता है अतः यहाँ इस की व्याख्या करने में पोस्ट बहुत ही लम्बी हो जाएगी . इस की चर्चा फिर कभी करेंगे .
विचार  आने का दूसरा तरीका है पिछला किया गया कर्म का विचार सूक्ष्म रूप में संचित हो जाना  और समय पा कर अनुकूल परिस्थिति में पुनः   प्रकट होना .इस प्रकार ये कार्य कारण की श्रंखला चलती रहती है .
बहुत से लोग यह कहते है की एक भूख से रोता हुआ बच्चा क्या पिछले जन्म पा पाप भुगत  रहा होता है या  फिर तो डाक्टर को मरीज तड़पता हुआ उस के कर्म भुगतने के लिए छोड़ देना चाहिए आदि आदि कुतर्क देते है  .
ये सब अज्ञानता की पराकाष्ठ है . अरे भाई  भूख  से रोता हुए बच्चे के लिए  पिछले जन्म में क्यों जाते है कारण है प्राक्रतिक नियम भूख और कर्म है रोना . डाक्टर अपने  किसी पिछले कर्म के कारण   उस देश काल और वातावरण में मरीज के सामने है और उस का कर्म निर्धारित हो चुका है .अब वो कर्म करे या न करे इस के उस का पिछला और आगे का कर्म दोनों ही सम्बंधित है .
कर्म का फल तो मिलेगा ही बहुत सा  तो यही और थोडा बहुत अगले जन्म में . कार्य कारण श्रंखला से निकलने  का केवल एक ही तरीका है विचार शून्य , जिस को मैं अपनी पिछली पोस्ट में बता चुका हू 


 
 


10 comments:

Lies Destroyer said...

कार्य-कारण का सारगर्भीत प्रस्तुतिकरण।
अच्छी व्यख्या है।

JC said...

हम हिन्दुस्तानी आज बड़े गर्व से कहते हैं की संसार को 'शून्य' हमने, हमारे पूर्वजों ने, दिया! किन्तु अधिकतर को शायद यह न पता हो कि श्रृष्टि के रचियता को ज्ञानियों ने शून्य काल और स्थान से जुडा पाया, यानि निराकार, शक्ति रूप, जिस कारण वो ही अदृश्य जीव केवल अजन्मा और अनंत जाना गया,,,शेष सब साकार रूप केवल अस्थायी - काल के साथ मृत्यु को प्राप्त होते - मानव द्वारा ('मिथ्या जगत में उपलब्ध) भौतिक पदार्थों से निर्मित यंत्र समान, जो विभिन्न आवश्यकता पूर्ति हेतु मानव के माध्यम से समय समय पर निर्माण किये जाते हैं पूर्व-निर्धारित काल-चक्र के अनुसार इस निरंतर परिवर्तनशील प्रकृति में (सर्वगुण-संपन्न कर्ता के विचार शक्ति, योग-माया, के प्रभाव से) ...जिस कारण तथाकथित 'माया' को जानना आवश्यक है?

JC said...

मान लीजिये कोई आपको चपत लगा देता है तो यदि आप उससे अधिक शक्तिशाली हुए तो संभव है वो आपको वापिस चपत तुरंत नहीं लगाए,,,संभव है वो इंतज़ार करे,,,और जब आपको लगे कि बात आई- गयी हो गयी,,, और यदि वो व्यक्ति बदले की आग में झुलस रहा हो,,, तो संभव है किसी दिन कोई भाड़े का टट्टू ही आ आपको अधिक हानि पहुंचा जाये (चपत के साथ उसका ब्याज़ जोड़कर!),,, और आप सोचते रह जाएँ कि इसका तो मैंने कभी कुछ भी बिगाड़ा नहीं था तो फिर इसने मुझे क्यूँ मारा? यह तो हुआ इस जन्म का हिसाब,,,किन्तु जिनका हिसाब इस जन्म में नहीं पूरा हुआ संभव है उसको पूरा करने व्यक्ति को फिर जन्म लेना पड़े...

JC said...

अब कोई भी जान सकता है क्यूँ किसी भी व्यक्ति को क्यूँ उपदेश दिया जोगियों ने मृदु-भाषी होने का,,,क्यूंकि जिव्हा तलवार से भी अधिक गहरे घाव बनाने में समर्थ है,,,इसी लिए 'रसना का दोष' भी कहा गया,,,और कर्म को मनसा, कर्म, और वाचा किसी भी प्रकार किया जाना मानते हुए, और हमारी ज्ञानेन्द्रियों को दूषित जान, मन पर नियंत्रण आवश्यक जाना गया...क्यूंकि अज्ञानता वश हमारी इन्द्रियाँ सही-गलत का निर्णय नहीं ले पाती हैं, जो केवल सर्वगुण संपन्न निराकार परमात्मा को ही मालूम होने के कारण, केवल शून्य के ही माध्यम से उनसे संपर्क संभव है,,,उसके लिए बाहरी, गंतव्य से भटकाने वाली, मकड़ी के बुने जाल जैसी व्यवस्था से, ध्यान हटाना आवश्यक जान, एक आम गृहस्थ को जब भी मौका मिले पाँचों इन्द्रियों को अभ्यास से कालान्तर में नियंत्रण में लाना आवश्यक जान, उन्हें एकांत में 'पूजा' करने का उपदेश दिया...

JC said...

'माया' को 'पापी पेट' की खातिर मकड़ी द्वारा बुने गए जाले, जिसमें कीड़े-मकोड़े अपनी आँखों की कमजोरी के कारण, अथवा अज्ञानता वश, फंस जाते हैं, जाना गया (वैसे ही जैसे पतंगे भी दीप की लौ पर भी, शायद उन्हें फूल समझ उनका पराग पाने की आशा में, भस्म हो जाते हैं) ,,,और जाले समान प्रकृति के तंत्र को भी जान, 'रचियता' को अष्ट-भुजा-धारी, माँ दुर्गा, दर्शाया गया (दुर्ग, यानि किले समान अभेद्य संरचना)...आठ भुजा को आठ दिशा जाना होगा जिनका राजा दिग्गजों को दर्शाया, हर दिशा का एक राजा हिमालय के विभिन्न शक्ति-पीठ पर उपस्थित (जहाँ हिन्दुओं ने मंदिर बना डाले) उपरी हिमालय में हिमाचल से नीचे आसाम तक, पूर्वोत्तर में कामाख्या मंदिर तक (मूलाधार का द्योतक) एक अदृश्य शक्ति जान जिस ओर प्रति वर्ष दक्षिण-पश्चिम में अरब सागर में उत्पन्न बादल खींचे चले आते हैं,,,और जल-चक्र स्थापित होने के कारण भारत सोने की चिड़िया जाना गया,,,और वो सोना ही है जो मानव को काल-चक्र में निरंतर घोड़े के सामने लटकी गाजर समान चलते ही रहने को मजबूर करता है (निराकार को भूल!),,, इत्यादि इत्यादि...

JC said...

ऐसा कहा जा सकता है कि किसी भी समय हम पाते हैं कि मानव अधिकतर वर्तमान को (अपने अपने) भूत की तुलना में बदतर प्रतीत करते हैं,,,यही आइनस्टाइन का (relativity का) वैज्ञानिक नियम जैसा भी प्रतीत होता है,,,और दूसरी ओर प्राचीन हिन्दू योगी आदि भी इसकी गहराई में जा इसे काल का प्रभाव दर्शाए,,, जिसके द्वारा मानव रचयिता का प्रतिरूप होने के कारण, किसी काल विशेष में ज्ञानेन्द्रियों के 'प्राकृतिक दोष' के चलते ('माया' के वशीभूत हो), रचयिता के (जो सदैव शून्य काल और स्थान से जुड़ा है और शून्य से अनंत तक उत्पत्ति कर सर्वगुण सम्पन्नता को प्राप्त हुवा और जिस कारण उसके लिए ही केवल कुछ भी असंभव नहीं रहा!) अपने ही भूतकाल के इतिहास को पृथ्वी, ' मिथ्या जगत ', पर किसी भी काल में उपस्थित अनंत नेत्रों के माध्यम से अपने तीसरे नेत्र में (पृथ्वी के केंद्र में नाद बिंदु विष्णु समान लेटे?) देखता पतीत होता है...किन्तु सत्य तक पहुँचने के लिए सतयुग का इंतज़ार करना होता है उसके विभिन्न प्रतिरूपों को!

"सत्यम शिवम् सुन्दरम"

JC said...

हिन्दू मान्यतानुसार पूर्व-निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार घटित, (सतयुग से कलियुग १०८० बार जाते) काल-चक्र द्वारा प्रदर्शित, निरंतर परिवर्तनशील प्रकृति में,,, यद्यपि काल के प्रभाव से वर्तमान में राक्षशीय शक्तियों (स्वार्थी जीवों) के देवताओं (परोपकारी जीवों) के ऊपर हावी होने से,,, हमसे अधिक ज्ञानी होते हुए भी अधिकतर व्यक्तियों को हमारे पूर्वज मूर्ख, और हम, (परंपरा को बनाये रखने के कारण, नक़ल करते) अन्धविश्वासी प्रतीत होते हैं,,, क्यूंकि हम उनकी सांकेतिक भाषा में कहे गए कथा-कहानियों को माया के प्रभाव से वर्तमान में प्रचलित भाषाओं और उनमें प्रयोग किये जाने वाले शब्दों के वर्तमान अर्थ के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं,,,जिस कारण 'सत्य' तक नहीं पहुँच पाते हैं...



यदि वर्तमान खगोलशास्त्रियों द्वारा उपलब्ध कराई गयी जानकारी को पृष्ठभूमि में रख थोड़ी गहराई में कोई जा सके तो शायद आज भी जान सकता है कि प्राचीन ज्ञानियों ने पृथ्वी पर आधारित (सर्वश्रेष्ट कृति मानव समेत) जीवों आदि को हमारे सौर-मंडल के (सूर्य से शनि तक) 'नव-ग्रह' के सार और 'अष्ट-चक्र', (यानि आठ गेलेक्सियों के केंद्र में उपस्थित शक्तियों को आठ ग्रहों द्वारा उनके प्रतिरूप समान और मूलाधार से मस्तिष्क तक स्थित), उनके द्वारा रचित यन्त्र, यानि सब को निराकार के ही विभिन्न, शून्य से अनंत काल को दर्शाते, प्रतिरूप जाना,,, और ब्रह्माण्ड के भीतर अनंत शक्ति को शेषनाग पर लेटे विष्णु (सौरमंडल के नौंवे ग्रह, रिंग प्लेनेट शनि समान सुदर्शन छल्ले वाले, यानि 'सुदर्शन चक्र धारी' नादबिन्दू) को हमारी पृथ्वी के केंद्र पर उपस्थित, (ब्रह्माण्ड के अनंत साकार रूपों के निर्माण के पचात, शेष शक्ति),,, एवं उसके आठवें अवतार, 'सुदर्शन चक्र धारी कृष्ण' (उनके प्रतिरूप हमारे सौर-मंडल के आठवें सदस्य, देवताओं के गुरु बृहस्पति, को हमारी गेलेक्सी के केंद्र में स्थित शक्ति, 'ब्लैक होल' का सार जाना,,,और गणितज्ञ आज भी संख्या '8' को शैय्या पर आराम करते कृष्ण समान अनंत को दर्शाते हैं!),,, और कृष्ण रुपी शक्ति को सब के भीतर, किन्तु अष्ट चक्रों में विभाजित,,, और उनके वास्तविक अनंत रूप को उनके मन, मस्तिष्क में, उनका स्थान दर्शाया,,, जिसे पाने के लिए 'कुण्डलिनी जागृत' करना आवश्यक जाना गया (प्रयास से अथवा प्राकृतिक तौर पर,,, जैसे द्वापर में जेल में पैदा हुए कृष्ण को उसके पहले देवकी के सात अन्य शिशु की मृत्यु के पश्चात उत्पन्न होते दर्शाया...आदि, आदि...

JC said...

किसी उपनिषद में पढ़ा था कि पहले मानव को देख कर ही तृप्ति हो जाती थी,,, किन्तु राक्षशों ने इसे बिगाड़ दिया और अब उनको केवल देख कर ही तृप्ति होनी समाप्त हो गयी,,,और इसी प्रकार उन्होंने सारी इन्द्रियों के एक-एक कर नाम ले उनको समय के साथ दूषित होते दर्शाया…
और ध्यान देने वाली बात है कि हिन्दू मान्यतानुसार समय को सतयुग से कलियुग की ओर जाते माना जाता है, १०८० बार ब्रह्मा के एक दिन में, यानि समय के साथ बद से बदतर होती मानव कार्य क्षमता,,, जबकि श्रृष्टि की उत्पत्ति विष से (कलियुग से) आरंभ हो अमृत प्राप्ति (सतयुग के अंत में) 'क्षीर-सागर मंथन' की कहानी द्वारा हर कोई सुनता आता है…(वर्तमान के सन्दर्भ में यह ऐसा ही समझा जा सकता है जैसे हम एक खेत का विडियो बनाएं, सूखी धरती से आरंभ कर लहलहाते खेत बनने तक,,, और फिर रील को उल्टा चला फिल्म को देखें,,, लहलहाते खेत को बंजर भूमि में परिवर्तित होते!)…

ABHISHEK MISHRA said...

आप से अक्षरशः सहमत
मनन करने का विषय

ZEAL said...

गहन चिंतन दर्शाता बेहतरीन आलेख।