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Friday, August 5, 2016

तत्वदर्शन परिचय भाग 5- पृथ्वी तत्व

तत्वदर्शन परिचय भाग 5 - पृथ्वी तत्व 

पृथ्वी तत्व सबसे आरम्भिक तत्व है । इस की सहायता से बाकी तत्व सिद्ध करना सरल हो जाता है। यह तत्व आप की सहनसक्ति को अकल्पनीय स्तर तक ले जाता है। हर संसारिक सुख का यह स्रोत भी है।यही कारण है की अधिकाँश साधक यही भटक जाते है और संसारिक सुुखो मे लिप्त हो कर वही रह जाते हैं।
यह तत्व अन्य की अपेक्षा जल्दी सिद्ध भी होता है और लालसा भी जाग सकती है यदि थोडा भी मार्ग से विचलित हुए।
सीता जी क्यो पृथ्वी की बेटी थी ये आप उन की सहनसीलता से समझ सकते हैं।
चाहे कितनी भी थकान क्यो न हो इस तत्व से वो क्षण भर मे समाप्त हो जाती है।
पहचान  -  जब यह तत्व चल रहा होता है तो श्वास १२ अंगुल तक होती है।
इस तत्व का ध्यान करने के लिए चौकोर आकृति का ध्यान लगाए जिस का रंग पीला है और कस्तूरी जैसी मंद मंद गंध आ रही हो।
बीज मंत्र - लं

Friday, October 16, 2015

पंचम विमा भाग-2

पंचम विमा की परिकल्पना पिछले लेख मे चर्चा की गई।
इस को समझने के लिए एक उद्दाहरण आप महाभारत से ले सकते है। भीष्म पितामह ने बाणो की सैय्या पर ही एक एक कर के अपने 100 जन्म देख लिए। पर वो कौन सा पाप था जिस के कारण वो इस हाल मे थे न खोज पाए।
अन्त उनहो ने भगवान श्री कृष्ण जी से प्रार्थना की तब भगवन ने उन को एक सौ एकवां जन्म दिखाया जहां उन से गलती हुई।
भीष्म पितामह चौथी विमा को जानते थे अतः वो अपने 100 जन्म देख  लेते है। पर एक एक कर के। अर्थात् वो समय रूपी झरने मे एक बार मे एक ही जगह देख सकते थे।
पर भगवान श्री कृष्ण एक साथ आगे पीछे उन के हजारो जन्म देख सकते थे। अर्थात समय के उस कालखन्ड से समय को अनन्त से अनन्त तक देख सकते थे।
वह पहली घटना जिस से समय बना। और वो आखिरी घटना जब समय नही होगा। समय घटनाओ के  सापेक्ष होता है।
यही अन्तर एक को सिर्फ महापुरूष और दूसरो को भगवान बनाता है।
यही वह रहस्य है जिस से आज भी देवता हमारी सहायता कर सकते है । यदि हम उन से जुड सके तो।
जुडना भी उन की ईच्छा है।वो कार्य कारण श्रंखला मे आप को देख सकते है।
उसी कालखन्ड से प्रभु श्री राम और कृष्ण हमारी सहायता कर देते है।

Saturday, July 18, 2015

अनन्त ब्रह्मान्ड परिकल्पना एव पंचम विमा

हम जिस ब्रह्मान्ड मे रहते है उस मे तीन विमाए है। यदि किसी वस्तु की हमे सही विमाए एव आकृति एकदम सही चाहिये तो हमे चौथी विमा समय भी चाहिये जिस के सापेक्ष हम किसी भी देश काल मे बाकी तीन विमाओ को वस्तुओ को बनाते और नष्ट करते देख सकते है। परन्तु इस विमा की भी अपनी सीमा है।आप  सिर्फ उस जगह पर ही परिवर्तन देख सकते है। जहां पर  आप हैं। आप के शरीर के परमाणु भी अलग अलग उस समय जहां थे हो जाएगे। दृष्टा आप की आत्मा ही हो सकती है। आप आत्म रूप मे जहां चाहे देख सकते है पर अनन्त विशालता के समक्ष ये बहुत तुच्छ है।
जिस प्रकार ये तीनो विमाए चौथी विमा मे समाहित है उसी प्रकार ये चारो पाचवी विमा मे समाहित है। जिसे हम सर्वकाल व्यापी विमा भी कह सकते ।
चौथी विमा से इस का  इस प्रकार आप समझ सकते है ।मान लीजिए समय एक झरना  है तो जब आप चौथी विमा मे होंगे तो आप उसी अनन्त झरने मे कहीं होंगे पर जब आप पाचवी विमा मे होंगे तो आप उस झरने मे नही अपितु उस अनन्त  झरने के एक द्रष्टा होंगे जो एक बार मे ही उस अनन्त झरने को अनन्त दूरी तकी देखता है। पाचवी विमा हम भी पा सकते है पिछले  एक लेख मे मैने साक्षि भाव पर विचार प्रस्तुत किया है।वो ही एक मात्र मार्ग है उस स्थिति मे जाने का।
अनन्त ब्रह्मान्ड की परिकल्पना के लिए ये तथ्य आवश्यक था। अगले लेख मे इस पर अपने विचार प्रस्तुत करूंगा।

Friday, May 9, 2014

शिव आराधना 

जब मैं शिव लिंग पर दूध अर्पित होते  देखता हू तो मुझे  यह उचित प्रतीत नहीं होता।  क्या यही विधि है आराधना की ?
क्या बेल पत्र  के शिव प्रसन्न होते है ?
शिव जी के प्रसाद के नाम पर भांग को खाना या पीना सहीं  है ?
ना जाने मैने कितनी बार भगवा वस्त्र पहने व्यकियो को अर्थात  साधु  वेशधारियो  को गांजा पीते देखा।  बड़े आराम से शिव का नाम ले कर ये नशा करते है ?
क्या धर्म नशे कि स्वीकृति देता है ?
मैंने बहुत लोगो से बात कि।  हर बात के बड़े ही विचित्र तर्क थे। कुल मिला कर आस्था की ढ़ाल का हि प्रयोग करतें    पाया  तर्कहीन होने पर।  
आखिर ये सब अाया  कहा से ?
हमने कितने व्यापक शिव को संकीर्ण विचारों से आडम्बर दवरा बांध दिया।  अर्थ का अनर्थ निकाला। ये शिव आराधना की विधियाँ  कदापि  नहि हो सकती हैं। 

आराधना विधि -  

शिव की वास्तविक आराधना साक्षी भाव  मे समाहित है।  अगर आप साक्षी भाव मे जीने लगे तो फ़िर आप पाएंगे कि शक्ति तो सदा से आप के पास हि है।  वो शक्ति जो  श्रष्टि क निर्माण  करती है  शिव से  साथ। 
कुछ भी शेष न रहेगा पाने को।  क्यों की जो आप से  अलग हो वही प्राप्त किया   जा सकता है। 
जो स्थिति समाधी प्राप्त होने पर होती है वो आप हर एक पल मे अनुभव करते है। 
साक्षी भाव कि विधि जितनी आसान लगनी है।  वो उतनी ही  कठिन भी है।  मैं इस बात को भली भांति जानता हूँ।  साक्षी भाव पर मैंने लेख ३ वर्ष पहले लिखा था। लेख लिखने के ४ वर्ष पहले से आराधना क प्रयास है पर जब मैन लगभग उस के पास  पंहुचता हूँ तो मुझे कुछ न कुछ व्यथित करने वाली परिस्थिति का सामना  करना  पड़ता  है , यू  ही  साक्षी भाव का स्थाई अनुभव  नहीं  हो जाता। 
मेरी कठिनाई स्थिरप्रज्ञ ना  हो  पाना  है। दुःख मुझे दुखी और सुख मुझे उस कि कामन  के लिये अभी भि प्रेरित करता है। 
अगर मैं इस को पार भि कर लू  तो हो सकता है कि कोई नई  परीक्षा हो।  जो भी हो मैं अपनी आराधना करता रहूँगा। 
भाग्यवान और स्थिरप्रज्ञ  कर्मयोगी ६ माह में भी प्राप्त कर सकता है। तो किसी के लिए पूरी जिंदगी भि कम पड सकतीं है। ये  निर्भर करता है  की आप आराधना मे कितने पक्के है। 
मुझे स्वीकार करने मे तनिक भी संकोच नहीं है कि मै कच्चा हु।  पर  आराधना इसी  का  नाम है 
और आराध्य सिर्फ़ शिव है जो  निराकार भी है और हम मे साकार  भी 
आप सब भी आराधना कीजिये  क्या पता आप लक्ष्य  के निकट हि हो और आप अपनी लक्ष्य प्रप्ति  के लिये ये सन्देश ईश्वर कि प्रेरणा से पढ़ रहे हो। 
क्यों की मै तभी लिखता हु जब   मेरे अन्दर से आवाज आती है।


Thursday, June 23, 2011

जड़ और चेतन

विज्ञानं ने इस स्रष्टि को उर्जा और प्रदार्थ  के रूप में विभाजित  किया है  . और  यही भौतिक  विज्ञानं का आधार भी है . इस आधुनिक विज्ञानं से हजारो वर्ष पहले इस   दुनिया के पहले विज्ञानी हमारे ऋषियों ने  इस की पूर्ण व्याख्या  कर  दी थी . उन्हों ने इसे  जड़ और चेतन में विभक्त किया   जिसे हम शिव और शक्ति भी कह सकते है .
 श्रष्टि निर्माण  की बड़ी ही सुन्दर व्याख्या  ऋषियों ने की थी , वो एक था और उस ने इच्छा की मैं एक से अनेक हो जाऊ और इसी के साथ श्रष्टि का  निर्माण  हुआ .अर्थात  वो एक ही था और वो एक से अनेक हो गया . पहले वह एक से दो अंशो जड़ और चेतन में विभक्त हुआ और फिर इन्ही से सम्पूर्ण श्रष्टि का निर्माण हुआ .
यदि हम और सूक्ष्म द्रष्टि से देखे तो जड़ तो है ही नहीं .जो  भी हमें  जड़ प्रतीत होता है वो तो बहुत सी  उर्जा का ही समुच्य है .
भौतिक  विज्ञानं भी यही कहता है 
e /c =m c 
वह एक ही है चाहे आप उसे कुछ भी कहे . मूर्ति पूजा का रहस्य भी इसी में है . इसी लिए देव स्थान जाग्रत  होते है .और मूर्ति जो प्रदार्थ (जड) से बनी है  उस के प्रभाव क्षेत्र में आते ही मन और विचार शुद्ध  हो जाते है .
मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा  सही या गलत 
किसी मूर्ति में प्राण  प्रतिष्ठा करना या उस को  जाग्रत मानना श्रद्धा भाव से ही संभव है पर इस का ये अर्थ बिलकुल भी नहीं है की ये  सिर्फ एक मान्यता या श्रद्धा है .इस का बड़ा ही ठोस  वैज्ञानिक आधार है .
इस के लिए हमें पहले प्राण  क्या है ये समझना होगा .
प्राण का अर्थ उस वायु  से है जो हमारे शारीर में सपंदन या कम्पन के लिए उत्तरदाई है . सनातन विज्ञानं में  हमारा शरीर ५ प्रकार की वायु और १० प्रकार की उप वायु से निर्मित  माना गया है  .जिस में से सिर्फ प्राण ही है जो सपंदन के लिए उत्तरदाई है . और इसी  लिए  ये जीवन का प्रतीक है .
यदि हम आधुनिक विज्ञानं को समझे तो उस के अनुसार  प्रत्येक  वस्तु परमाणु  से बनी है .ये  परमाणु  अपनी माध्य स्तिथि के दोनों तरफ  दोलन करते रहते है  अर्थात प्रत्येक परमाणु की आवृत्ति  होती है .इस प्रकार  पत्येक परमाणु  में प्राण है जो उस स्पंदन के लिए उत्तरदाई है .
आप चाहे उसे विज्ञानं की भाषा में उर्जा बोले पर सनातन विज्ञानं में उसे हम प्राण ही कहेंगे .  अर्थात मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा में कुछ भी गलत नहीं .
अब प्रश्न ये है की क्या  किसी भी देव मूर्ति के प्राण का स्तर इतना उठ  जाता  है की वो याचको की मनोकामना पूर्ण कर सके .
आखिर मनोकामना कैसे  पूर्ण होती है  इस पर मैं अपने विचार अगले लेख में रक्खूँगा .आप के विचार का भी स्वागत है  

Sunday, January 30, 2011

वरदान, इच्छित प्राप्ति और भविष्यवाणी

हमारे ऋषि और महात्मा पहले जो वरदान या श्राप देते थे वो फलित होता था . ऐसा वे कैसे करते थे इस के बारे में काफी मंथन के बाद जो समझ में आया वो रख रहा हू . आप के विचार  का भी स्वागत है .
अगर विज्ञानं की द्रष्टि से देखा जाये तो हर परमाणु की अपनी आवृत्ति होती है . जब  कही से परमाणु को ऊर्जा मिल जाती है तो  उस की आवृत्ति बढ़ जाती है  जब तक की वह उस अतिरिक्त ऊर्जा को अपने पडोसी परमाणु  को नही दे देता .
  जिस  प्रकार परमाणु की आवृत्ति होती है उसी प्रकार प्राण की भी आवृत्ति होती है , जितनी उस की आवृत्ति होगी  उस का इलेक्ट्रो मेग्नेटिक फिल्ड उतना की शसक्त होगा. अर्थात आस पास के वातावरण में उतना ही उस का प्रभाव होगा .
कहने का तात्पर्य यह है की चेतना के स्तर होते है .  चेतना के स्तर पर ही निर्भर है उस का  प्रकति पर प्रभाव या प्रकति का उस के सापेक्ष होना .
आप  एक   वृत्त को देखिये . उस की परिधि पर  असंख्य बिंदु होते है . जैसे जैसे आप वृत्त के केंद्र की तरफ  जायेंगे उन बिन्दुओ के बीच की दुरी घटती जाएगी   . और वृत्त के केंद्र पर सिर्फ एक ही बिंदु होगा .
उपरोक्त उद्दहरण से  आप चेतना के स्तर   को  समझ सकते है . प्रकति में अनेक विभिन्नताए है पेड़  , पौधे , ग्रह उपग्रह  ,तारा  मंडल  आदि  आदि  .चेतना के इस स्तर पर असंख्य भिन्नताए है पर जैसे जैसे चेतना का स्तर उठता जाता है भिन्नताए समाप्त होती जाती है .और उस परम चेतना के बिंदु पर कोई  भिन्नता नही रहा जाती वो एक ही है वही है 
एकोहम  बहुस्यामि 
एक  से ही अनेक है  .
अब  आती है इच्छित और वरदान देने की बात .  यदि चेतना के स्तर अलग अलग है  तो आप  एक वृत्त के अन्दर असंख्य वृत्त की कल्पना कर सकते है  अर्थात एक वृत्त अपने अन्दर वृत्त  को पूरा धारण करता है परन्तु जिस वृत्त के अन्दर वह है उस का कुछ ही भाग जो उस में है जानता है.  ठीक इसी प्रकार चेतना भी है .
वरदान उच्च चेतना अपने से निम्न चेतना को अपनी सामर्थ्य के अनुसार दे सकती है . वो अपने से निम्न चेतना  को तो पूरी तरह समझ सकती है  पर अपने से उच्च चेतना को  पूरी तरह नही जान सकती . यही से गुरु की महिमा समझी जा सकती है . इसी लिए  गुरु को शिष्य और शिष्य को गुरु का चयन बड़ी ही सावधानी से करना चाहिए .
वरदान  या इच्छित की प्राप्ति का आशीर्वाद आप की चेतना पर है . क्यों की आप ही तो है देने वाले और लेने वाले भी ,आप अपने किस स्वरुप  पर है यही निर्धारित करता है 
अभी  मैंने कुछ दिन पहले एक सपना देखा . मैंने देखा की एक व्यक्ति से मैं तलवार के साथ लड़ रहा हू . मैं उस को हराना चाहता था पर वो हर बार मुझे तलवार से घायल कर देता है और हार नही रहा था . फिर मैंने सोचा की क्यों की ये एक सपना है और मैं ही ये पहले ही उस की जीत  निर्धारित कर चुका हू  तो यह नही हार सकता  और मेरी नीद तुरंत  ही खुल गयी .
मेरे अन्तः चेतन ने  ने अपनी ईच्क्षा से पहले ही सब निर्धारित कर दिया था और मेरा छुद्र मन  अपनी ईच्क्षा  के अनुसार  वांक्षित चाहता था . बस यही है वरदान और इच्छित की प्राप्ति का राज .
हम  अपने चेतना के स्तर   को  बढ़ा  कर अपनी इच्छा  जान सकते है जो हर चीज निर्धारित कर देती है 
यही  है भविष्यवाणी का राज 
अगले  लेख में हम चेतना का स्तर कैसे बढ़ा सकते है इस  पर चर्चा करेंगे   

 

Friday, January 7, 2011

कार्य - कारण श्रंखला

इस लेख से पहले मैं अमर बलिदानी चंद्रशेखर आजाद की जयंती पर उन को सत सत नमन करता हू . मेरे ग्राम बदरका में उन का जन्म दिन आज के ही दिन ७ जनवरी को मनाया जाता है . मुझे गर्व है की चन्द्र शेखर आजाद का बचपन मेरे घर में ही बिता जो आज भी हमारे ही पास उन की निशानी के तौर पर है और उन की माँ का ख़त मेरे दादा जी के नाम   उन की मृत्यु के बाद 
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बहुत से लोग पुनर्जन्म और भारतीय संस्कृति  की यथार्त्ता  पर  प्रश्न उठाते है . यथार्थवादियों  का मानना है की  मूर्खो को डरा कर गलत कम करने के रोकने के लिए इन पुनार्जमं की परिकल्पना की गयी जहा कर्मो के हिसाब से जन्म मिलता है . उन सब प्रश्नों और भी बहुत से प्रश्नों का उत्तर आप को कार्य कारण श्रंखला में मिल जायेगा . प्रकृति का अटल नियम  है यह कार्य कारण श्रंखला जिसे पूर्णतया वैज्ञानिक  तरीके से समझा जा सकता है  .
इस के अनुसार हम आज जो कर्म कर रहे है उस का कारण हमारा पिछला किया हुआ कर्म है और  हमारा आज का कर्म ही भविष्य में किये जाने वाले कर्म का बीज है .ये श्रंखला अनन्त से आई है और अनत तक जाएगी . इस के बाहर आना ही मोक्ष  है . 
प्रकति का अटल नियम है की यदि आप पूर्व दिशा की ओर जा रहे है आप पूर्व की ही ओर जायेंगे पश्चिम नही , हाँ आप को भ्रम जरुर हो सकता है . यही कार्य कारण श्रंखला का भी आधार है . आने वाला कल हम आज बनाते है . क्यों की हम बहुत ही थोडा जानते है अतः हम यह समझ नही पाते और कभी  ईश्वर को दोष देते है तो कभी भाग्य की सराहना और दोष .
यदि ऐसा न हो तो फिर प्रकति व्यवस्थित और संतुलित हो ही नही सकती . आप कुछ भी करने के लिए स्वतन्त्र है .
प्रकति  इसी नियम से अनुसार खुद को संतुलित करती है . 
विचार  ही कर्म करने के लिए प्रेरित करता है . अतः विचार ही कर्म का आधार है और यह हमारे पूर्व कर्म या प्रकृति के द्वारा ही आता है . प्रकृति के द्वरा तो यह एक लम्बी प्रक्रिया से अनेक मस्तिष्को में सफ़र करते हुए आता है अतः यहाँ इस की व्याख्या करने में पोस्ट बहुत ही लम्बी हो जाएगी . इस की चर्चा फिर कभी करेंगे .
विचार  आने का दूसरा तरीका है पिछला किया गया कर्म का विचार सूक्ष्म रूप में संचित हो जाना  और समय पा कर अनुकूल परिस्थिति में पुनः   प्रकट होना .इस प्रकार ये कार्य कारण की श्रंखला चलती रहती है .
बहुत से लोग यह कहते है की एक भूख से रोता हुआ बच्चा क्या पिछले जन्म पा पाप भुगत  रहा होता है या  फिर तो डाक्टर को मरीज तड़पता हुआ उस के कर्म भुगतने के लिए छोड़ देना चाहिए आदि आदि कुतर्क देते है  .
ये सब अज्ञानता की पराकाष्ठ है . अरे भाई  भूख  से रोता हुए बच्चे के लिए  पिछले जन्म में क्यों जाते है कारण है प्राक्रतिक नियम भूख और कर्म है रोना . डाक्टर अपने  किसी पिछले कर्म के कारण   उस देश काल और वातावरण में मरीज के सामने है और उस का कर्म निर्धारित हो चुका है .अब वो कर्म करे या न करे इस के उस का पिछला और आगे का कर्म दोनों ही सम्बंधित है .
कर्म का फल तो मिलेगा ही बहुत सा  तो यही और थोडा बहुत अगले जन्म में . कार्य कारण श्रंखला से निकलने  का केवल एक ही तरीका है विचार शून्य , जिस को मैं अपनी पिछली पोस्ट में बता चुका हू