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Tuesday, December 28, 2010

कृष्ण शक्ति

हमारी वैदिक संस्कृति यज्ञ प्रधान  रही है  . जो अग्नि और  प्रकाश के रूप में ईश्वर की आराधना का प्रतीक है . गायत्री मंत्र जो महा मंत्र माना गया है उस में भी ईश्वर को प्रकाश स्वरुप माना गया है . ईश्वर की कल्पना दिव्य ज्योति  पुंज  के रूप में की गयी है.
 आम जन   मानस प्रकाश को ईश्वरीय मानता है  और अंधकार को तामसी शक्तियों का प्रतीक.पर  ये दोषपूर्ण  अवधारणा है . 
 शक्ति (ऊर्जा ) तो  शक्ति  ही है फिर वो दोषपूर्ण कैसे हो सकती है ? उस का प्रयोग हम कैसे करते है ये हम पर निर्भर करता है .
कृष्ण शक्ति को समझने के लिए हमें कुछ तथ्य समझने होंगे .
                                                        वैज्ञानिक द्रष्टि 
एक परमाणु पर कोई आवेश नही होता है जैसे ही एक इलेक्ट्रान उस से निकलता है जितना आवेश इलेक्ट्रान पर होता है उतना ही आयन पर .   जब इलेक्ट्रान पुनः अपनी कक्षा में आ जाता है तो वे मिल कर उदासीन हो जाते है .  आयन का द्रव्यमान इलेक्ट्रान की तुलना में बहुत  अधिक होता है . 
 यदि  एलेक्ट्रोन अपनी  कक्षा में वापस आ भी  जाये तो  परमाणु पर तो कोई आवेश नही होता पर उस के अन्दर स्थित इलेक्ट्रान पर तो आवेश होता ही है और वो अनन्त काल तक अपनी कक्षा में चक्कर लगता रहता है. जब तक की उस को  आवश्यक वाह्य  ऊर्जा न मिल जाये . परमाणु के अन्दर  धन आवेश भी है और ऋण आवेश भी पर परमाणु पर कोई आवेश नही है . उस के अन्दर गति भी है . प्रकाश की गति से इलेक्ट्रान अपनी कक्षा में चक्कर लगा रहा होता है . और घूर्णन गति भी करता है ठीक वैसे ही जैसे की अपनी पृथ्वी  अपनी अक्ष और कक्ष दोनों  पर घूमती है  .
पत्येक  परमाणु     पूरे ब्रह्माण्ड  का  प्रतिनिधित्व करता है  और मानव काया  तो असंख्य परमाणु  से  बनी हुई होती है . स्थिरप्रज्ञ( न सुख में सुखी होने वाला और न ही दुःख में दुखी होने वाला ) जिसे अहम् ब्रम्हास्मी  का बोध हो  वो पूरे बह्मंड का  प्रतिनिधित्व करता है . उस के अन्दर सब कुछ है  . यही कारण है की भगवान श्री कृष्ण  के मुख में  माता यशोदा को सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के दर्शन हो जाते है 
पर ये भी मोक्ष की अवस्था नही है क्यों की अस्तित्व तो है ही .
  आईये   विज्ञानं  के एक समीकरण को देखे 
\gamma + \gamma \leftrightharpoons \mathrm e^{+} + \mathrm e^{-},
where γ is a photon, e+ is a positron and e is an electron.

परमाणु ( ब्रह्माण्ड )   के अन्दर  इलेक्ट्रान (जीव ) अनन्त काल तक चक्कर लगता रहता है . जव तक उस का अस्तित्व है वो गतिशील है .उस को अपना अस्तित्व नष्ट करने के लिए  अपने से ठीक विपरीत positron  की आवश्यकता होती है और दोनों ही अपना अस्तित्व समाप्त कर देते है और प्रकाश  ऊर्जा के बण्डल  फोटान में बदल जाते है . ये बण्डल अखंड और अविनाशी  होते है .
अपना अस्तित्व समाप्त करना ही मोक्ष  है .
सिर्फ  प्रकाश मार्ग  पर चलने  से मुक्ति संभव नही है . ये  तो सिर्फ एक शिरा है मोक्ष के लिए तो दूसरा शिरा कृष्ण शक्ति  (डार्क मैटर एनर्जी  ) भी चाहिए .
क्रमशः 

Tuesday, December 21, 2010

पुनर्जन्म प्रक्रिया एव प्रेत अवस्था

पुनर्जन्म की प्रक्रिया सुनिश्चित होती है  जिस में विघ्न  पड़ने पर कुछ समय  प्रेत  अवस्था  भी हो सकती है .पुनर्जन्म की प्रक्रिया समझने के लिए हमें कुछ तथ्य समझने होंगे .
हमारे भाव ही फलीभूत  होते है .इसी लिए एक ही कर्म करने पर भी अलग अलग फल प्राप्त हो सकते है . किसी भा कर्म का फल उस कर्म करने के भाव में निहित होता है . 
 सत्य तो यह की  हमारे भाव का प्रभाव हमारे जीवन के हर क्षेत्र में पड़ता है . क्या आप ने कभी सोच है की हमारे यहाँ   किसी की मृत्यु  के समय  गीता का पाठ क्यों करते है ? क्यों चौथा आश्रम वानप्रस्थ आश्रम है ? 
इस का जवाब प्रकति के एक नियम में छुपा है जो पुनर्जन्म की प्रक्रिया को भी निर्धारित करता है . मरते समय हमारा जो अंतिम भाव होता हम उसी  भाव पर स्थिर हो जाते है .इस के दो कारण है . पहला की हमारी बुद्धि नष्ट हो जाती है जो विवेक के लिए उत्तरदाई   होती है और दूसरा यह की घटनाये समय के सापेक्ष होती है और  घटना  न होना समय  से परे होना ही है अर्थात मरने से जन्म लेने तक का समय  उस के लिए रुक जाता है . इस स्थिति में न तो वह कुछ प्राप्त कर सकता है और नही कुछ खो सकता है . .
मृत्यु  के उपरांत हमारा मन ही हमारे साथ जाता है जिस में हमारे जन्म जन्मान्तर के संस्कार संचित होते है . जन्म तभी संभव है जब की ये संस्कार उस माता पिता के संस्कार से मेल खाए जिस के यहाँ  वह जन्म लेना चाहता है. ये थी उसी प्रकार है जैसे कोई ताला अपनी ही चाभी से खुलता है  . यही कारण है की  साधारण लोग तो जन्म लेते रहते है पर बहुत पुण्य आत्मा और  बहुत दुष्ट आत्मा को जन्म लेने के लिए काफी लम्बा इन्तजार करना पड़ता है क्यों की वे चाह कर भी तब तक जन्म नही ले सकते जब तक की उन के संस्कारो वाले माता पिता उसे न मिल जाये .
ये प्रकति का नियम अवतारवाद  की धारणा को पुष्ट करता है जिसे हमारे ऋषि मुनि मानते थे और विरासत में मिलने पर हम भी मानते है पर बिना कारण जाने . 
विज्ञानं  में  गति विषयक नियम कहता है की 
यदि कोई पिंड गतिशील अवस्था  में  तो वह गतिशील रहेगा और विराम अवस्था में है तो विराम  में ही रहेगा जब तक की कोई वाह्य बल न आरोपित किया जाये .
यही बात म्रत्यु  के उपरांत  लागु होती है अंतिम भाव की ठोकर जिस दिशा की होती है    उसी दिशा जन्म मिलता है .
भरत मुनि की कहानी उस का प्रमाण मानी जा सकती है . भरत मुनि ब्रह्म ज्ञानी थे पर म्रत्यु से कुछ दिन पूर्व उन्हों ने एक अनाथ मृग का बच्चे को आश्रय दिया .और मरते समय उसी से मोह में आसक्त हो गए . फलस्वरूप मोक्ष से पूर्व उन्हें एक और जन्म लेना पड़ा जिस में उन्हें मृग योनी प्राप्त हुई  .
                                                    प्रेत अवस्था 
हमारा शरीर पांच  तत्वों  से निर्मित है .मृत्यु के समय सिर्फ पृथ्वी तत्व अलग  हो जाता है . इस तत्व के अलग हो जाने पर वह स्थूल  जगत में अपना अस्तित खो देता है.
पर जब कोई किसी अत्यंत प्रबल भाव के साथ मृत्यु को प्राप्त होता है कुछ मात्र  में वह सूक्ष्म देह में पृथ्वी तत्व भी आ जाता है और ये अवस्था ही प्रेत अवस्था होती है . ये मात्र इतनी सूक्ष्म होती है के अपना अस्तित्व प्रकट   नही कर सकते .  एक तत्व कम होने पर ये कुछ हद तक भविष्य और पूरा अतीत  देख सकते है . प्रेत विद्या जानने वाले और योग्य व्यक्ति संपर्क कर के जानकारियां  प्राप्त कर  लेते है .
अचानक घटी दुर्घटना में कभी  कभी पृथ्वी तत्व  की थोडा अधिक मात्र में आ जाता है जिए ये प्रयास  कर अपनी धुए  आभासी आकृति कभी कभी प्रकट कर सकते है .
प्रेत अवस्था  को हम उस के बीते काल की प्रतिध्वनी मान सकते है  जिस का समय वही पर रुक चुका  है .   
   
  
 

Sunday, December 12, 2010

पुनर्जन्म

बहुत से लोग पुनर्जन्म   की धारणा पर विश्वास  नही करते  क्यों के वे प्रमाण मांगते है और वैज्ञानिक सोच भी प्रमाण पर ही  आधारित  है  . ऐसे बहुत से उद्दहरण पुनर्जन्म के है जिस का  का विज्ञानं के पास कोई जवाब नही है .
हम बहुत की चीजे नही जानते बल्कि बहुत ही कम जानते है ज्ञान के विशाल सागर की तुलना में , पर जिसे हम नही जानते उस का अस्तित्व है और हमारे जानने या न जानने से सत्य पर फर्क नही पड़ता  सिर्फ हम पर ही फर्क पड़ता है .
हम कार्य कारण की की अनन्त श्रंखला में है  और जिस के कारण हम को कर्मो के फल का भोग करना ही पड़ता है .यह श्रंखला स्वचालित है और पुनर्जन्म इसी  कारण होता है . यदि ऐसा न हो तो हम कर्म कर उस के फल भोगने के लिए बाध्ह्य न होते .
पुनर्जन्म इस स्वचालित प्रकति का एक हिस्सा है  .
पुनर्जन्म की प्रक्रिया समझने से पहले हमें  जीव क्या है जानना होगा .
म्रत्यु के साथ हमारा अस्तित्व समाप्त नही होता है क्यों की  म्रत्यु सिर्फ शरीर का जीव से अलग होना  है . जब तक जीव है तब  तक उस का अस्तित्व है . 
                                 जीव क्या है ?
आत्मा और जीव में अंतर है . हमारे तीन शरीर माने गए है  स्थूल , कारण और सूक्ष्म ,  स्थूल शरीर के नष्ट होने को हम म्रत्यु  और सूक्ष्म शरीर के नष्ट होने को हम मोक्ष कहते है . मोक्ष मिलने का अर्थ है हमारे अस्तित्व  का  समाप्त हो जाना  और  शून्य में  विलीन  जाना . 
कभी  बहती हुए नदी में बनते हुए जल भवर को देखिये . उस का अस्तित्व है क्यों हम उस को देख रहे है पर उस में हर पल नई जल धार आ  जाती है . तो क्या उस का अस्तित्व ये जलराशि है कदापि नही क्यों की वह तो प्रति पल बदल रही है . उस का अस्तित्व है वह  गतिज ऊर्जा  जो पुरानी जल राशी नयी को दे देती है .
ठीक यही बात हम पर लागु  होती है . हमारा शरीर  उस जल रही की तरह है तो जीव रूपी ऊर्जा के निकल जाने पर बिखर जाता है .
इस ऊर्जा को हम मन  के  नाम से जानते  है. इस को आप आम बोल चल की भाषा में प्रयोग होने वाला मत समझे . यहाँ  पर ये व्यापक अर्थ  में प्रयोग हुआ है . इस में ही हमारे जन्म जन्मान्तरो के संस्कार संचित होते है और यही हमारे अस्तित्व के लिए उत्तरदाई है .  
 क्यों की हम ईश्वर के अंश है और ये श्रष्टि इश्वर की ईच्क्षा  मात्र  से हुई . अतः हम जो भी चाहते है  वो हमें मिलता जरुर है और यही  हमारे अगले जन्म का  कारण बनता है . 
पुनर्जनम  की निश्चित प्रक्रिया होती है जिस में व्यवधान ही पड़ने पर  कुछ  समय के लिए  प्रेत योनी  प्राप्त हो सकती है .  अगली पोस्ट में  पुनर्जन्म  प्रक्रिया और प्रेत योनी के बारे में  जानकारी साझा करेंगे